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अन्वयार्थ-(देवपूजा दया दाणं) देवपूजा, दया, दान (तित्थजत्ता) तीर्थयात्रा (जवो-तवो) जप-तप (सुदं) श्रुत [तथा] (परोवगारित्तं) परोपकार की भावना [य] (णरजम्मे) मनुष्य जन्म में (फलट्ठगं) आठ फल हैं।
भावार्थ-जिनेन्द्र देव की पूजा करना, सभी जीवों पर दया भाव रखना, सुपात्रों को दान देना, तीर्थयात्रा करना, जप करना, तप करना, निरन्तर शास्त्राभ्यास करना और परोपकार करने की भावना रखना ये मनुष्य जन्म की सार्थकता के आठ फल हैं।
पुण्य के फल देवसत्थ-गुरुसेवा, संसारा णिच्चभीरुदा।
पुण्णेण जायदे पुंसं, किरिया सुक्ख-पुण्णदा॥28॥ अन्वयार्थ-(देव-सत्थ-गुरुसेवा) सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की सेवा (संसारा णिच्चभीरुदा) संसार से नित्य भयभीतपना [और](सुक्ख-पुण्णदा) सुख तथा पुण्य प्रदान करने वाली (किरिया) क्रियाएँ (पुंस) मनुष्य को (पुण्णेण) पुण्य से (जायदे) प्राप्त होती है।
भावार्थ- मनुष्य को सच्चे देवशास्त्र गुरु की सेवा, संसार से भय भीरूता, सच्चा सुख अथवा स्वर्ग-मोक्ष का सुख तथा पुण्य अर्थात् सम्यग्दर्शन प्रदान कराने वाला आचरण अत्यन्त पुण्य के योग से प्राप्त होता है।
जिनधर्म के फल रज्जं च संपदा भोगा, सुकुलं च सुरूवदा।
पंडित्तं आऊ मोक्खो य, जिणधम्मस्स सप्फलं ॥29॥ अन्वयार्थ--(रज्ज) राज्य (संपदा) संपत्ति (भोगा) भोग (सुकुलं) सुकुल (सुरूवदा) सुरूपता (पंडित्तं) पाण्डित्य (आऊ) आयु (च) और (मोक्खो य) मोक्ष [यह] (जिणधम्मस्स) जिनधर्म के (सप्फलं) अच्छे फल हैं।
भावार्थ-राज्य, संपदा, सुकुल में जन्म, सुंदर-शरीर, शास्त्रों में पारगामिता, लम्बी आयु और मोक्ष ये जिनधर्म का अच्छी तरह पालन करने से प्राप्त होने वाले श्रेष्ठ फल हैं अथवा सारी सुख-सुविधाएँ श्रेष्ठ जैनधर्म के पालन करने से प्राप्त होती हैं।
धर्मात्मा के लक्षण सच्चं सोचं दया-दाणं, चागो संजम-पालणं।
तवं परोवगारित्तं, धम्मियस्स हि लक्खणं॥30॥ अन्वयार्थ-(हि) वस्तुतः (सच्चं सोचं दया-दाणं-चागो-संजमपालणं) सत्य, शौच, दया, दान, त्यागशीलता, संयम का पालन करना, (तवं) तप [और] (परोवगारित्तं) 138 :: सुनील प्राकृत समग्र