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भावार्थ-जिनेन्द्र देव द्वारा कथित धर्म को प्राप्त करके जो मनुष्य उसमें कहें गए व्रत-नियमों का पालन करता है, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्राप्ति हेतु निरन्तर पुरुषार्थ करता है, सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति करता है, वह निश्चित ही सम्पूर्ण पाप-कर्मों को नष्ट कर सर्वोत्तम स्थान मोक्ष को पाता है।
धर्म में संलग्न हो जाओ जोव्वणंजीविदं सोक्खं, चित्तं लच्छी यचंचला।
णच्चा धम्मेरदो ह्येज्जा, णिच्चलंसोक्ख कारणं॥34॥ अन्वयार्थ-(जोव्वणं-जीवि-सोक्खं चित्तं लच्छी) यौवन, जीवन, सुख, मन और लक्ष्मी [ये] (चंचला) चंचल है, (णच्चा) ऐसा जानकर, (णिच्चलं) निश्चल (सोक्खकारणं) सुख के कारणभूत (धम्मे) धर्म में (रदो) रत (होज्जा) हो जाओ।
भावार्थ-यौवन (जवानी), लौकिक इन्द्रियजन्य सुख मन और लक्ष्मी अर्थात् धन-संपत्ति ये सभी चंचल अर्थात् नाशवान हैं, किन्तु एक स्वभावभूत धर्म ही निश्चल और शाश्वत है, ऐसा जानकर ज्ञानियों को चाहिए कि वे धर्म मार्ग में ही प्रवृत्ति करें। क्योंकि यह धर्म ही सच्चे सुख का कारण है। धर्म के बिना तीन काल में भी सुख- शांति नहीं मिल सकती, अतः सच्चे धर्म मार्ग में सतत पुरुषार्थ करो।
ये धर्म को नहीं जानते मत्तप्पमत्त-उम्मग्गी, लोही कोही य कामुगो।
दुहिदो छुहिदो मूढो, भीदो धम्मं ण जाणदि॥35॥ अन्वयार्थ-(मत्तप्पमत्त-उम्मग्गी) मत्त-प्रतत्त, उन्मार्गी (लोही) लोभी (कोही) क्रोधी (कामुगो) कामी, (दुहिदो) दु:खी (छुहिदो) क्षुधातुर, (मूढो) मूढ (य) और (भीदो) भयभीत [मनुष्य] (धम्म) धर्म को (ण) नहीं (जाणदे) जानता है।
भावार्थ-मत्त अर्थात् पागल या मतवाला, प्रमत्त अर्थात् शराब आदि के नशे से उन्मत्त, उन्मार्गी अर्थात् खोटे कार्यों में प्रवृत्ति करने वाला, अति लोभी, अति क्रोधी, कामुक अर्थात् विषय-वासना में पड़ा हुआ, दुःखों से युक्त, भूखा, मूढ़ अर्थात् अज्ञानी अथवा नास्तिक तथा किसी भय से अति भयभीत व्यक्ति धर्म को नहीं जानते हैं।
धर्म की महिमा दुहिणो दुहणासस्स, मोक्खस्स भवभीरुणो।
पाविणो पाव-णाणस्स, जाणेज्ज धम्म-उत्तमं ॥36॥ अन्वयार्थ-(दुहिणो दुहणासस्स) दु:खी के दुःख का नाश करने के लिए (पाविणो पाव-णाणस्स) पापी के पाप नष्ट करने के लिए [तथा] (भवभीरुणो) 140 :: सुनील प्राकृत समग्र