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27 णो चिंत णो तुम सदी मुदिदेज्ज णम्मि किं इच्छसे गिहगिहस्स सुकज्जकम्म। कुव्वेज सासण-जिणं जिणणायगाणं
सिक्खेज्ज तुम्ह ववसाय कलं कलग्गिं॥27॥ तू चिन्ता मतकर सदा प्रसन्न रहो, जिन शासन, जिननायकों को नमनकर तुम व्यवसाय कला में अग्रणी बनो। गृह के कार्य एवं कर्म करते हुए भी क्या चाहते हो, कहो।
28 मादू सिरी दुहिद पुत्त दुहं पढेदि पीदिं कुणेति भगिणीउ पमोदिणीए। भाऊ तुमं च गिह-अंगण-रम्म-ओमो!
संसार रीदि-गिहणीइ गहेज्ज तुम्हे ॥28॥ मातुश्री दुःखित पुत्र के दुःख को पढ़ लेती। प्रमोदिनी बहने भी प्रीति को प्राप्त होती हैं। भो गृहाँगन के प्रिय रम्य भाई ओम! तुम संसार रीति से गृहिणी को ग्रहण करो।
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गेहे ण किंचि धण-धण्ण-पमाण-भूदो मादू सिरीइ सिर-पालण-पोसणं च। वावार-संग-गिह-अंगण-गेहिणी किं
किंपाग-पाग-सरिसा का इधे हु भोगा॥29॥ गृह में धन-धान्य भी पर्याप्त मात्रा में नहीं है। मातुश्री के शिर पर हम लोगों के पालन-पोषण भी है। व्यापार के साथ गृहांगन में गृहिणी एवं संसार भोग क्या किम्पाक फल के सदृश नहीं?
30 अम्हे चिदे पउम-गंध-पमोदिणी णो धिग्गत्थु में विसय रुद्ध-जणं च ओमं। विल्लीयदे सरद-मेह-खणे णहंगे
लच्छी-सुहं तडिद-इंदु-सया हु लोला ॥30॥ वह ओम सोचता कि मेरे चित्त में खिले हुए पद्म की गंध नहीं। मैं प्रमोदिनी वाला नहीं बनना चाहता हूँ। विषयासक्त इस ओम को धिक्कार। जैसे नभांचल में
72 :: सम्मदि सम्भवो