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ओर ले जाने वाली प्रमाणी है यह गीति, सरस्वती है । क्रियाशील सुकार्य की लेखी है। वह कामधेनु के सदृश सदैव गुणों से उपकारी एवं पूर्णा सर्वकार्य सिद्धि करती है।
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चिंतामणी सम-समत्त पदायिणी सा अक्कंद भीदि भय काल सुबह बोही । बंधु तिथ बंधवजणा भव पार कारी चित्ते चिदं पुरिस अत्थ पसंत मुत्तं ॥24 ॥
विद्या तो चित्त में चित स्वरूप (विशुद्धात्म - चैतन्य स्वरूप ) पुरुषार्थ से प्रशान्त मुद्रा ( अशान्ति में शान्ति) को देती है, विद्या बंधु और बांधवजन (परिजन) भी है, यह भव (संसार) से पार ले जाने वाली है । यह आक्रान्त, भीति, भय आदि के समय उत्तम बोधी देने वाली है तथा यह बोधराज की तरह है जो हमारे अशान्त चित्त को प्रशान्त कर रही है । यह वास्तव में चिन्ता से मुक्त कराने वाली चिन्तामणि की तरह है, जो हमारे श्रम में समत्व दे रही है।
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भव्वादिभव्व- परमागम- सुत्त - विज्जा ओमे सुदं च अणगार-विसेस - सेवं । जाज्ज धण-धण हीण विचिंत भावे उज्जोग - सील-तणयो जणणीइ पादे ॥ 25 ॥
उस ओम में भव्यातिभव्य परमागम सूत्र रूप विद्या थी तभी तो श्रुत और अनगार विशेष सेवा को प्राप्त होता है । वह धन-धान्य विहीन विचार में निमग्न उद्योग शील तनय जननी के पैरों में झुक जाता है ।
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आलिंगदे वि परिचुंवदि सीस-मत्थं । मे चंद- चंदण - समो तुह पुत्त - पुत्ती ।
संती - णिकेतण- सिरी- सिरमोर - विज्जा
कासी - पुरी मदण - खंडण - जोग - विज्जा ॥26॥
मेरे लिए पुत्र-पुत्री तो चन्द्र हों, चंदन सम हों। मैं शान्ति निकेतन की विद्यार्थी काशीपुरी की विद्या आदि जानती हूँ । यदि योग विद्या होती है तो मदन खंडित करती ही । ऐसा कहती हुई उसके शिर पर हाथ रखती, परिचुंबन करती और उसे गले लगा लेती है।
सम्मदि सम्भवो :: 71