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लोए ण को वि सुह-संति- जुदो तिथ अस्सि सव्वे असंत-भयकंत जमेण णिच्चं । संसार-सार-समलं किद-कूर वाणी लच्छी सिरीइ अणुवद्ध-गुणादु हीणा ॥20 ॥
इस संसार में कहीं भी सुख - शान्ति नहीं, सभी अशान्त एवं यम से आक्रान्त
भी असार संसार में अति अलंकृत देही क्रूर प्राणी लक्ष्मी श्री ( धन-वैभव ) में जकड़े गुणों से हीन हैं।
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ओमस्स माणसि हिए खण खण्ण- सद्दा अक्कूर कुक्कड रवा सवणेसु गुंजे ।
बोहं च भासदि इमो गिह- गच्छणत्थं सोम्मो इमो विसरलो ण हु बाहगो वि ॥21॥
ओम की मानसिकता में क्षण क्षण में वे ही शब्द थे । अक्रूर एवं कुक्कुट के शब्द कानों में गूंज रहे थे । यह बोधराज जी से कहता गृह जाने के लिए। वे सहज, सौम्य सरल थे तभी तो उसमें बाधक नहीं बनते हैं।
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सीलादु भूसिद-गुणादु जुदा हु विज्जा धणं कुणेदि इध जम्म जसं पदेज्जा । णारी ण वि जगदे बहुमण्ण-माणा बोहाइराज - बुहचिट्ठिद-सेट्ठि-विज्जा ॥22॥
बोधराज की सचमुच (वास्तव में) बुद्धिशाली हैं वे व्यवसायी श्रेष्ठी विद्या युक्त (समझदार हैं । सो ठीक है शील एवं गुण से भूषित विद्या इस लोक में जन्म यश को देती है, यह धन्य करती है । नर-नारियों के लिए इसी से जगत में बहुमान प्राप्त होता है ।
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सेयक्करी णय - णयंत पमाणि - गीदी सारस्सदी किरिय सील सुकज्जलेही ।
सा कामधेणु उवयारिगुणेहि पुण्णा सोक्खे दुहे परम-अत्थकरी हु विज्जा ॥ 23 ॥
विद्या सुख दुःख में परम प्रयोजन वाली है । यह श्रेयस्करी नय (निर्णय) की
70 :: सम्मदि सम्भवो