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शरद ऋतु के मेघ क्षण में विलीन हो जाते हैं उसी तरह लक्ष्मी सुख ( धन-धान्य वैभव का सुख) बिजली के समान चंचल है।
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एदे विलोभययदेंति इथे हु भोगा जंतूण मोदय पमोद सुहं च किंचि ।
दासज्ज जोव्वण सुहं हि धम्म-कम्म णो दाण-सील - सम-संति - सुबंह- हेदुं ॥31॥
इस संसार में ये भोग लुभाते हैं । यौवन सुख, गृह धर्म-कर्म आमोद प्रमोद आदि जो कुछ भी प्राप्त होता है वह शील, समत्व, शान्ति एवं सुब्रह्म के दान को नहीं दे सकता है।
उत्तम बंहचेरो
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साहु संगदिदं अणुसील धम्मं णाणं लहेदि चरियं अणुपेहणं च । पत्तेदि तित्थ-गिरि-सोण - सुसम्म - बंहं सूरीमहामुणिवरो महवीरकित्तिं ॥32॥
वह ओम साधु संगति को प्राप्त, शीलधर्म की ओर अग्रसर ज्ञान, साधु चर्या और अनुप्रेक्षण को प्राप्त होता है, वह सोनागिरि की तीर्थयात्रा करते हु ब्रहचर्यव्रत को अंगीकार करता है। सूरि महावीरकीर्ति की कीर्ति को वह आधार बनाता है।
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तिज्जोग - जोग - जुद- अप्पहिदं च सम्म गंगं अगंग-मुणिराज पहुँ च चंदं । दंसेविदूण मणसा वयसा विकाए एट्टाइ आगत-इमो वदणिट्ठ - भूदो ॥33॥
ये त्रियोग युक्त सम्यक् आत्म हित की ओर अग्रसर होते हैं । यह नंग अनंग मुनिराजों एवं चन्द्रप्रभु के दर्शन कर मन, वचन और काय से व्रतनिष्ट एटा में आते
हैं ।
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एसो जुवो वि जुवदीण कुमारिगाणं बहे समाहिद- सदा वरणेज्ज दंसे ।
सम्मदि सम्भवो :: 73