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69 धम्म अत्थादु कामादो, पबंधो त्तु पवदे।
पबंधो जायदे बंधो, महाकव्वो विसो हवे॥69॥ धर्म, अर्थ और काम से प्रबंध बढ़ता है, वह प्रबंध महाकाव्य भी हो सकता है, पर ऐसा प्रबन्ध बन्ध है अर्थात् बन्ध बढ़ाने वाला विष है।
70 पुरिसत्थे चदुत्थम्हि, मोक्खो सम्मदी-दायगो।
अस्सिं मग्गे पउत्ताणं, जम्मो हु सफलो हवे॥7॥ चतुर्थ पुरुषार्थ में मोक्ष पुरुषार्थ सन्मति दायक है। इस मार्ग पर चलने वालों का जन्म सफल होता है।
71 णिच्छयो सम्म मग्गो सो, कव्वे मे सम्मदी जगे।
जधा सद्दा-अणंता वि, तधा अणंत-दंसगो॥71॥ वह मोक्षमार्ग सम्यक् मार्ग है, निश्चय ही मेरे काव्य में सन्मति जागृत करेगा, क्योंकि जैसे शब्द अनंत है वैसे ही अनंतदर्शक (अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्य दर्शक) मोक्ष है।
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विराग परिणामीणं, बहुसंखा जगे ण हु।
एगो जणाण सो लोए, तिजग-उवयारिणो॥72॥ जगत् में विराग परिणामियों की संख्या कम है, फिर भी वह एक ही लोगों एवं त्रिजग का उपकारी होता है।
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आदिसागरएगो त्थि, अंकलीकर-णामगो।
आइरियो जगे पुज्जो, विंससदीअ णायगो॥73॥ एक अंकलीकर आदिसागर जगत पूज्य आचार्य हुए वे बीसवी सदी के नायक कहे गये।
74 . सो आचार-वियारे वि, णिउणो सम्मदी मदी।
मूलोत्तर-गुणाणंदी, सम्मदी सम्मदी धरे॥74॥ वे आचार-विचार निष्ठ सन्मति की मति वाले मूलोत्तर गुणानंदी थे। वे सभी
सम्मदि सम्भवो :: 35