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तरह सन्मति-आगमानुचारी सन्मति (सूत्रों) में प्रवृत्त थे।
75 साहुत्त-ठिद आयारे, विरागे गदि-सज्जदे।
मोक्खमग्गी महासाहू, साहु-मग्गि-सुदंसगो॥75॥ वे साधुओं एवं आचार में स्थित विराग मार्ग की ओर गति कराते हैं। वे मोक्षमार्गी, महासाधु तो साधुमार्ग दिखलाने वाले थे।
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जस्सिं मूलम्हि पण्णा हु, सम्मदी सम्मदी पही।
गुणाखंधा सुबाचा वि, पल्लवा पल्लिवेज्जदे॥76॥ जिसके मूल में प्रज्ञा है, सन्मति रूप उत्तम मति, प्रधी हो, गुण रूपी (माधुर्य प्रसाद और ओज) स्कंध हैं और वाग-वचन रूपी पल्लव पल्लवित हैं।
77 पवाल-पल्लवा बिद्धं, पत्तं पत्ताणि मंजिरी।
जसो अत्थि पबंधस्स, लालिच्चो गुण-वेल्लरी॥77॥ प्रबाल रूप पल्लव वृद्धि को प्राप्त पत्र रूपी मंजरी यदि प्रबंध के मध्य हैं तो उससे यश होगा एवं लालित्य रूपी गुणों की वेल भी होगी।
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सम्मदी-मोक्ख-दाणं च, उवजोगत्थ-मंगला।
अच्छेर-कध-दिव्वंसी, तच्च संवडिणी कधा॥78॥ सन्मति तो मोक्षदान देगी, उपयोगी होने पर वही मंगला आश्चर्य उत्पन्न करेगी, यह कथा संवर्धिनी एवं दिव्यांशी होगी। यही इसका कथन (अभिप्राय) होगा।
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मिच्छत्त-मद-घादंगी, अत्था अत्थं च दायिणी।
पण्णवंताण पण्णत्थे, अजुत्तिं परिहारए79॥ यह कथा मिथ्यात्व मद घातने वाली प्रयोजन भूत हैं। यह अर्थ-रहस्य को देगी। प्रज्ञावंतों की प्रज्ञा विकसित करेगी तथा अयुक्तियों का परिहार करेगी।
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कधा लोए त्तु दिव्वा वि, दिव्व-माणुसि माणुसी। दिव्वे उत्तम-भावो णो, माणुसी दिव्व-माणुसी॥80॥
36 :: सम्मदि सम्भवो