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मृगांक मृदु एवं सौम्य हैं जगत् में लोगों द्वारा कहा गया, फिर वह सौम्य होता हुआ अकलंक नहीं है। सज्जन सभी तरह मल रहित सौम्य एवं अकलंक है।
64 मेहीगिही सदा मेही, मेहं सम्मदि पंथगं।
पस्सेंति णिम्मला सव्वे, दुज्जणाणं च सम्मदी।64॥ मेधीगृही सदा मेधी मेधा, सन्मति पंथ को देखते हैं। वे सभी तरह से निर्मल दुर्जनों की मति सन्मति हो ऐसी कामना करते हैं।
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कव्वरसाण मग्गीणं, सम्मदि-कंतिणा सदा।
सुज्ज-समं च तेजं च, दायम्हि अग्गणी हवे॥5॥ वे काव्यरस मार्गियों के लिए अपनी सन्मति व्यक्ति से सदा सूर्य सम तेज देने में अग्रणी होते हैं।
66 णमो दोसाकराणं च, दोसाकराण सुत्तगं।
सुत्ताण आगमाणं च, पविस्स मणुजाण हं॥66॥ जो दोष उत्पन्न करते या रजनी में अपनी किरणोंसे दोष-कालिमा हटाते जो दोषाकर-चन्द्र की कान्ति वाले हैं उन्हें नमन। उन सूत्र प्रकाशक सूत्रों और आगमों में प्रविष्ट मानवों के लिए नमन हो।
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को सम्मदी ण सइत्थं, पबंधे बंध-छंदगं।
णो इच्छेदि सु-लालिच्चं , पद-रीदिं रसं लयं ॥67॥ कौन सन्मति शब्दार्थ को नहीं चाहता, कौन प्रबंध में बंध-महाकाव्यत्व के छंद नहीं चाहता और कौन लालित्य, पद, रीति एवं रस रूपी लता नहीं चाहता है?
लोए लोएंति सव्वे हु, कवी कव्व पगासणं।
सद्दत्थे रस लालिच्चं, दोसाण सम्म णासणं ॥68॥ लोक में सभी कवि काव्य प्रकाशन को, शब्दार्थ में रसलालित्य को चाहते हैं तभी तो दोषों के नाश हेतु सम्यक् प्रयत्न करते हैं।
34 :: सम्मदि सम्भवो