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प्रव्रज्या-पथ के पथिक
वैरागी हस्ती के अध्ययन एवं महाव्रत पालन की योग्यता में निरन्तर संवर्धन हो रहा था। माता रूपा जी | प्रव्रज्या अंगीकार करने के लिए आतुर हो रही थी, तो विरक्त हस्ती भी प्रव्रजित होने के लिए उत्सुक था। चातुर्मासार्थ पीपाड़ विराजित आचार्य श्री शोभाचन्द्र जी म.सा. की सेवा में दीक्षा प्रदान करने हेतु विनति की गई। किन्तु जैन धर्म में विरक्तात्मा को श्रमण-दीक्षा तभी दी जाती है जब वह अपने माता-पिता या निकटस्थ सम्बंधियों का आज्ञा-पत्र प्रस्तुत करे।
बालक हस्ती बोहरा कुल का एक मात्र चिराग था, अत: निकट परिवारजनों ने आज्ञा प्रदान करने से मना कर दिया एवं कहा कि समस्त बोहरा कुल-वंश की भावी पीढ़ी की आशा इसी हस्ती पर टिकी है, परिवार में यही एक मात्र पुत्र सन्तति है। बार-बार समझाने पर भी परिवार के लोग राजी नहीं हुए। अन्ततोगत्वा माँ रूपा ने आगे बढ़कर वीरता का परिचय देते हुए गुरुजनों से निवेदन किया कि बालक हस्ती को आज्ञा प्रदान करने के लिए तत्पर मैं स्वयं हूँ, इसका मुझे अधिकार भी है। आप बालक हस्ती को सहर्ष दीक्षित कीजिए। इस प्रकार बालक हस्ती की प्रव्रज्या के लिए तो रूपादेवी ने अनुमति प्रदान कर दी, किन्तु स्वयं रूपादेवी की दीक्षा के लिए निकटस्थ परिजनों का आज्ञा-पत्र आवश्यक था। माता रूपादेवी को इसके लिए काफी संघर्ष करना पड़ा, किन्तु माता-पुत्र के प्रबल वैराग्यभाव के कारण एवं सिरहमलजी दूगड़, लक्ष्मीचन्दजी कवाड तथा रीयां के रूपचन्दजी गुंदेचा के सत्प्रयत्न एवं समझाइश पर देवर रूपचन्द जी ने लिखित अनुमति प्रदान कर दी। इससे न केवल विरक्त आत्माओं में, अपितु समस्त श्रावक समाज में हर्ष की लहर छा गई। दीक्षा की अनुमति होते ही माता रूपादेवी ने पीपाड़ में पतासीबाई (सूरजकरण) के यहाँ रखे भांड-बर्तन आदि का विक्रय कर पीपाड़ का लेन-देन साफ किया, घर भी सम्हलाया। इससे यह प्रतिफलित होता है कि माता रूपादेवी एवं बालक हस्ती संसार के कर्ज से मुक्त होकर कर्मों के कर्ज से मुक्त होने के पथ पर आगे बढ़ना चाहते थे। __आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. का संवत् १९७७ का चातुर्मास सकारण (दाहज्वर के कारण) पीपाड़ में हुआ। चातुर्मास समाप्ति पर अजमेर के सेठ मगनमलजी का संदेश प्राप्त हुआ कि गोचरी पधारते समय गिरजाने से स्वामीजी श्री हरकचन्द जी म.सा. को गहरी चोट लगी है। समाचार मिलते ही आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. ब्यावर होते हुए अजमेर पधारे।
यहाँ आने पर आचार्यश्री ने संघ के आग्रह पर गुरुवार माघ शुक्ला द्वितीया विक्रम संवत् १९७७ (१० फरवरी |१९२१) का दिन दीक्षा हेतु निश्चित कर दिया। विरक्त हस्ती एवं उनकी माता रूपा के साथ ही वैरागी श्री चौथमल | जी एवं विरक्ता बहन अमृतकंवर जी की भी दीक्षा होना तय हो गया। दीक्षा का स्थल अजमेर में ढढ्ढा जी का बाग | निर्धारित हुआ।
दीक्षा चेतना का ऊर्ध्वगामी रूपान्तरण है जिसमें आत्मा अपने कषाय-कलुषों का प्रक्षालन करने के लिए सन्नद्ध होती है। दीक्षा के लिए आगमों में 'प्रव्रज्या' शब्द का प्रयोग हुआ है जो इस तथ्य को इंगित करता है कि एक बार गृहस्थ जीवन का त्याग कर देने के पश्चात् उसमें पुनः लौटना नहीं होता। प्रकृष्ट