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(प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड
रूप से व्रज्या अर्थात गमन ही प्रव्रज्या है। यह मुक्ति का मार्ग है। अतः इस सुअवसर पर सभी का प्रमुदित होना स्वाभाविक है। प्रव्रज्या अंगीकार करने वाले की जीवनशैली पूर्णतः बदल जाती है। पंच महाव्रत, पांच समिति
और तीन गुप्तियों का पालन करते हुए रत्नत्रय के समाराधनपूर्वक आत्म-प्रक्षालन की यह साधना सबके लिए सुकर नहीं होती, किन्तु जैन धर्म के अनुसार मुक्ति के पथिक को संसार से आसक्ति त्याग कर संयम के पथ पर वीरता के साथ बढ़ना होता है।
अजमेर जैसे नगर में चार मुमुक्षुओं का एक साथ प्रव्रज्या पथ पर कदम रखना एक उत्साह एवं आह्लाद का अवसर था, किन्तु समाज में कुछ दोषदर्शी एवं नकारात्मक चिन्तन वाले लोग भी होते हैं, अतः बाजार में इस प्रकार के कुछ व्यक्ति यह कहते सुनाई पड़े कि दश वर्ष की लघुवय में दीक्षा देना उचित नहीं है। नकारात्मक चिन्तन जल्दी तूल पकड़ता है, इसलिए यह विचार परचेबाजी के रूप में भी सामने आया कि हस्तीमल्ल को दीक्षा न दी जावे,
क्योंकि वह अभी मात्र दश वर्ष का बालक है। किन्तु आचार्य श्री शोभाचन्द जी म.सा. के विद्वत्तापूर्ण एवं तेजस्वी | चिन्तन के समक्ष बाल-दीक्षा के विरोधी लोग नतमस्तक हो गये। आचार्य प्रवर द्वारा जैन धर्म एवं भारतीय संस्कृति के उन अनेक महापुरुषों के उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किये गये जिन्होंने बालवय में दीक्षित होकर अनेक कीर्तिमान स्थापित किये। समाज के प्रतिष्ठित सेठ मगनमल जी, दूगड़ जी, सांड जी, मोतीलालजी कांसवा, दुधेड़ियाजी, रूपचन्दजी ढड्डा, बोहराजी आदि अग्रगण्य श्रावकों ने भी इसमें गहरी रुचि ली एवं दीक्षा का कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ।
जैन समाज में यह प्रश्न अभी भी बार-बार उठता है कि बालवय में दीक्षा देना उचित है अथवा नहीं? इस सम्बंध में यह कहा जा सकता है कि लघुवय में भी यदि कोई मुमुक्षु साध्वाचार का पालन करने में समर्थ हो तथा ज्ञानदर्शन का आराधन करने में तत्पर हो तो उसे दीक्षा अवश्य दी जानी चाहिए। यह कहावत कि 'पूत के लक्षण | पालने में ही नजर आ जाते हैं। इस सम्बंध में मानदंड बन सकती है। इतिहास पुराण साक्षी है कि व्यास पुत्र शुकदेव जन्म ग्रहण करते ही अध्यात्म पथ पर आरूढ़ होकर वन की ओर चल पड़े थे। भक्त शिरोमणि ध्रुव पांच वर्ष की वय में ही भक्ति के बल पर भगवद् दर्शन कर चुके थे। जैन परम्परा में आर्य वज्र को जन्मते ही जातिस्मरण ज्ञान एवं वैराग्य हो गया और शिशु अवस्था में ही साधना पथ के पथिक बन गये थे। अतिमुक्त कुमार भी बालवय में ही प्रव्रज्या ग्रहण कर भगवान महावीर के शिष्य बने थे। आचार्य हेमचन्द्र बचपन में दीक्षित होकर कलिकाल सर्वज्ञ के रूप में विख्यात हुए। यशस्वी रलवंश परम्परा तो बाल ब्रह्मचारी आचार्यों की परम्परा रही है। पूज्य श्री गुमानचन्दजी म.सा. एवं पूज्य श्री हम्मीरमलजी म.सा. ने मात्र १० वर्ष की वय में ही दीक्षा अंगीकार कर जिनशासन का उद्योत किया। संस्कृत साहित्य के महाकवि बाण भट्ट कहते हैं-“अयमेव ते काल उपदेशस्य विषयानास्वादितरसस्य' अर्थात् जब तक विषय भोगों का आस्वादन नहीं किया तब तक ही उपदेश का प्रभाव सुकर होता है। विषय भोगों के आस्वादन के पश्चात् प्रव्रज्या अंगीकार करना और उसका निर्दोषता पूर्वक दृढता से पालन करना अतिदुष्कर है।
दूसरी बात यह है कि जीवन का प्रारम्भिक काल तेज और शक्ति का ऐसा पुंज होता है जो ज्ञानाभ्यास के लिए तो उत्तम अवसर प्रदान करता ही है साथ ही जीवन-निर्माण के लिए भी योग्य संस्कारों का सृजन करता है।
__ वैरागी हस्ती १० वर्ष १९ दिन के थे तथापि उनमें साधना के प्रति निष्ठा, विचारों के प्रति दृढ़ता और ज्ञानाराधन के प्रति तत्परता तथा समर्पण इस बात के द्योतक थे कि संयम की साधना पर बढ़कर वे निश्चित ही आत्मकल्याण के साथ जगत् के कल्याण में भी भास्कर की भांति देदीप्यमान होंगे।