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प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड
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के गिरने से हुई विरक्ति से अरिहन्त अरिष्टनेमि एवं वासुदेव श्रीकृष्ण के बीच हुए बल-परीक्षण की घटना जीवन्त हो उठती है। इस घटना से चरितनायक की विचारशैली भी परिलक्षित होती है, कि दूसरों को गिराकर जीतने में सच्ची | जीत नहीं है।
बालक हस्तिमल्ल का बचपन कठिन परिस्थितियों में अवश्य बीता-किन्तु अपनी समझ, प्रतिभा, करुणा आदि विभिन्न गुणों के कारण वह अपने बाल सखाओं में बड़े आदर की दृष्टि से देखा गया। सात-आठ वर्ष की उम्र कोई अधिक नहीं होती। उसमें नेतृत्व, न्याय एवं समझदारी की छाप उस समय भी दिखाई दे रही थी। • परिवार के प्रति दायित्व बोध
परिवार की विषम आर्थिक परिस्थितियों से धैर्यपूर्वक जूझने एवं उसका समाधान खोजने का अदम्य उत्साह | भी बालक हस्ती में विद्यमान था। जब दादी नौज्यांबाई एवं माता रूपादेवी चरखे पर सूत की पूनी कातती तो हस्तिमल्ल को यह अच्छा नहीं लगता था। वह स्वयं श्रम करके घर का खर्च चलाना चाहता था। दादी एवं माता के | द्वारा किये गए श्रम के संस्कार बालक हस्ती को श्रम करने के लिए प्रेरित करते थे। अत: विपदाएं साहस भी देती हैं।
और धैर्य भी। हस्तिमल्ल में इस बालवय में जो धैर्य एवं साहस था वह उसके भावी व्यक्तित्व का निर्माण कर रहा | था। यह काल एवं भाग्य का चक्र है जिसमें कभी अखूट सम्पदाएं होती हैं तो कभी विपदाओं का पहाड़ टूट पड़ता है। हस्तिमल्ल के दादा दानमल जी बोहरा एवं पिता केवलचन्द जी के पास जो बोहरगत का व्यवसाय था वह उनके दिवंगत होने के साथ ही डूब गया। मणिहारी की उधारी भी कौन किससे मांगता, कौन उगाहता? इस कारण देने में समर्थ लोगों ने भी उधारी नहीं लौटाई । नौज्यांबाई एवं रूपादेवी पर विकट परिस्थिति आ पड़ी। अचल सम्पत्तियों से दैनिक खर्च नहीं चलाया जाता। इसलिए उसकी व्यवस्था में दादीजी एवं माताजी का सहयोग करने हेतु बालक हस्ती भी उद्यत हो गया। स्वाभिमानी इस परिवार पर हस्ती के नाना गिरधारीलाल जी मुणोत की भी पूरी देखरेख थी। वे अपने स्तर पर समस्या का निराकरण करने का प्रयास करते रहते थे। • सन्त-सती का प्रथम सुयोग
विक्रम संवत् १९७३ में रूपादेवी एवं पुत्र हस्ती को एक सुयोग प्राप्त हुआ। जैनाचार्य श्री शोभाचन्द्र जी महाराज की आज्ञानुवर्तिनी महासती श्री बड़े धनकुंवर जी का चातुर्मास पीपाड़ में हुआ। रूपादेवी के लिए यह स्वर्णिम संयोग था। उसने इसका भरपूर लाभ उठाया। वह नित्य प्रति प्रवचन में जाती एवं बालक हस्ती को भी साथ ले जाती । बालक भी ध्यान से महासतीजी के उपदेश का श्रवण करता था। इससे रूपादेवी की वैराग्य भावना तो पुष्ट हुई ही, बालक हस्ती पर भी अच्छे संस्कारों का बीजारोपण हुआ। महासतीजी का मां- बेटे पर पूर्ण आत्मीय | भाव था। उनके मन में विश्वास हो गया था कि भविष्य में ये दोनों श्रमण पथ पर आरूढ होंगे।
इसी वर्ष आचार्य श्री शोभाचन्द्र जी म.सा. संवत् १९७३ का जोधपुर चातुर्मास पूर्ण कर विहार करते हुए | पीपाड़ पधारे । यहाँ पर अस्वस्थता के कारण कुछ दिन विराजे । रूपादेवी ने इस समय भी प्रवचन-श्रवण एवं सत्संग का लाभ उठाया। बालक हस्ती भी माता के साथ जाता एवं कुछ न कुछ सत् संस्कार अवश्य ग्रहण करता। किसे पता था कि रूपादेवी एवं बालक हस्ती आगे चलकर आचार्य श्री शोभाचन्द्र जी म.सा. की शिष्यता अंगीकार कर आत्मकल्याण का पथ अपनायेंगे और मुनि हस्ती लाखों लोगों का प्रतिबोधक बन जायेगा।