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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
• ननिहाल पर कहर
विक्रम संवत् १९७४ के कार्तिक माह में हस्तिमल्ल के नाना गिरधारीलालजी मुणोत के परिवार पर कराल काल का भीषण प्रहार हुआ। मारवाड़ में उस समय प्लेग का प्रचण्ड प्रकोप आया। प्लेग के इस प्रकोप ने अगणित सधवाओं की मांग का सिन्दूर पौंछ डाला, सहस्रों माताओं की गोद सूनी कर दी। अनेक पुरुष अपनी अर्धांगिनियों को अपने हाथों चिता की आग में जला, स्वयं जीवन भर चिन्ता की आग में जलने की स्थिति में पहुंच गए। अबोध शिशु अपने माता-पिता के प्यार से वंचित हो अनाथ हो गए। परिवार के परिवार धराशायी हो गए। मृत्युभय से कुछ लोग सुदूर ग्राम-नगरों में पलायन कर गए। जो रहे, उन पर सदैव खतरा मंडराता रहा। ऐसा भी हुआ जो मृतक की अर्थी उठा कर जा रहे थे, वे श्मशान से लौट कर नहीं आए। गांव में चिताओं की आग ठंडी नहीं हो पाती थी। पीपाड़ भी इससे अछूता नहीं रहा। मुणोत परिवार पर इस प्लेग का घातक आक्रमण हुआ। बालक हस्ती जो लगभग सात वर्ष के थे, ने अपने आदरणीय नाना गिरधारीलाल जी मुणोत को काल कलवित होते देखा। यही नहीं उस समय उनकी नानी श्रीमती चन्द्राबाई, मामाजी, मामीजी, मौसी, बड़ी नानीजी (रूपा माँ की दादी जी) भी उस भीषण प्लेग के द्वारा अपनी चपेट में लील लिए गए। रूया देवी सबकी बड़ी तत्परता से सेवा कर रही थी, किन्तु आयुष्य पूर्ण हो जाने पर कौन किसे बचा सकता है।
माँ रूपा के जीवन पर यह दूसरा बड़ा प्रहार था, जिसने पीहर का सम्पूर्ण सम्बल एक साथ छीन लिया। कोई भी तो नहीं बचा। परिवार के ११ सदस्य एक साथ प्रयाण कर गए। अब पीहर में कोई आंसू बहाने वाला भी न था। रूपा को जीवन की क्षण-भंगुरता एवं नश्वरता के ताण्डव नृत्य ने रूपादेवी के अन्तर्मानस को झकझोर दिया। वैराग्य पर दृढ़ विश्वास हो गया। • सत्य का बोध
___हस्तिमल्ल पर भी इस घटना ने सत्य की गहरी छाप छोड़ी। जब वह गर्भ में था तब पिता केवलचन्द जी के | देहावसान की घटना ने अवचेतन मन पर देह की अनित्यता का संस्कार छोड़ा था, अब वह संस्कार अपने नाना एवं उनके परिवार पर हुई मृत्यु-विभीषिका से दृढ़तर हो गया। उनमें जीवन एवं मृत्यु के गूढ सत्य को जानने के प्रति तीव्र जिज्ञासा उत्पन्न हो गई। संसार की असारता एवं पार्थिव शरीर की विनाशशीलता का उन्हें बोध हो गया। 'जातस्य हि ध्रुवं मृत्युः जन्म के साथ मृत्यु का सम्बंध अटल है, वे इस सत्य को जान गए। वे सोचने लगे कि इस संसार में कोई रहने वाला नहीं, सबको जाना है । एक दिन उन्हें भी इसका सामना करना होगा। इस प्रकार उन्होंने जीवन की सार्थकता को खोजना प्रारम्भ कर दिया था। उन्हें यह भी समझ में आ गया कि उनकी माता क्यों वैराग्योन्मुखी है? क्यों वे गृहस्थ जीवन का परित्याग कर साध्वी बनना चाहती हैं?
कितना सम्पन्न था उनका ननिहाल ! पीपाड़ में कैसा वर्चस्व था ! कहाँ गया वह सब? पूरे परिवार में उत्साह एवं आह्लाद था, किन्तु देखते ही देखते सब उजड़ गया। नानाजी का वात्सल्य अब मात्र कथा-शेष रह गया था। पहले हस्तिमल्ल वहाँ दौड़ कर जाता था, अब कहाँ जावे? क्यों जावे? किसके पास जावे?
जो दृष्टि या ज्ञान सुदीर्घ साधना से प्राप्त नहीं होता, अनेक शास्त्रों के अभ्यास एवं मंथन से प्राप्त नहीं होता | वह ज्ञान बालक हस्ती को ननिहाल की इस घटना से हो गया। सम्भव है बालक हस्ती के वैराग्य में इस घटना ने |बहुत बड़ा कार्य किया हो।