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तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड
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(२७) तू भी गुरु सम बन जासी
(तर्ज:- हरि भज हरि भज प्राणीड़ा) गुरु भज, गुरु भज, गुरु भज, मनवा, गुरु भज्यां गुरु धन पासी। गुरु ने ध्याकर गुरु ने पाकर, तू भी गुरु सम बन जासी ॥टेर ॥ सिद्ध प्रभु हैं सिद्ध शिला पर, कुण देख्या देखण जासी । गुरु चरणन की शरण लेय तो, सिद्ध शिला दौड़ी आसी ॥१॥ महाविदेह अरिहन्त विराजे, इण भव तो नहीं मिल पासी । गुरुदेव की कृपा हुई तो, तू खुद अरिहन्त बन जासी ॥२॥ प्रभु के रुठ्या गुरु शरण है, झट सुमार्ग बतलासी ।। गुरु रुठ्या नहीं ठौर जगत में, गुरु तूष्यां प्रभु मिल जासी ॥३॥ गुरु तात गुरु भ्रात गुरु ही देव, ओम गुरु जो ध्यासी । इण भव रिद्धि सिद्धि पग पग पासी, पर भव शिव सुख बरतासी ॥४॥ गुरु हस्ती मिलिया पुण्य योग, यो अवसर फिर कद आसी ।। 'जीत' पकड़ले चरण गुरु का बिन तारियां नहीं, तिर पासी ॥५॥
(२८) परम दयालु गुरु महिमा
(तर्ज: - चुप-चुप खड़े हो) तारण तिरण सद्गुण के निधान हैं, परम दयालु पूज्य गुरु गुणखान हैं।टेर ॥ सती रूपां माता देखो धन्य धन्य हो गई। रतनों की राशि हमें खुशी खुशी दे गई।
ओस वंश केवलचन्द जी तात बुद्धिमान हैं ॥१॥परम ॥ नाम है गजेन्द्र प्यारा, चित्त को लुभावना, लघुवय दीक्षा फिर, पूज्य पद पावना शोभाचन्द्र गुरु मिले ज्ञान के निधान हैं ॥२ ॥परम ॥ बाल ब्रह्मचारी तेरी शान ही निराली है, प्रवचन शैली, अद्भुत रस वाली है संघ के प्रणेता, जिन शासन की शान हैं ॥३॥परम ॥