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(तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड
६८७ शौच निवृत्ति के पश्चात् खजूर के एक पेड़ के नीचे विराज कर हाथ धोए। हाथ साफ करके जैसे ही आप उठे
और कुछ कदम ही आगे बढे होंगे की पीछे यकायक पेड़ की एक भारी भरकम शाखा उसी स्थान पर टूट कर गिर पड़ी जहाँ आप कुछ क्षण पूर्व विराजित थे। आचार्यप्रवर की सेवा में साथ चल रहे श्री गौतम मुनिजी ने तुरन्त आचार्य भगवन्त के समक्ष आशंका प्रकट की कि भगवन, यदि चंद क्षणों पहले यह हादसा हो जाता तो कितना बडा अनिष्ट हो सकता था। इस पर आचार्यप्रवर के मुखारविन्द से सहसा निकल पड़ा- धर्मो रक्षति रक्षित: और चेहरे पर कोई भय, कोई आशंका नहीं। वहाँ तो थी |
पूर्ण शांति और निश्चिन्तता। • प्रगति की राह में सबसे बड़ी बाधक बनती हैं हमारी रूढ़ परम्पराएँ । एक साधारण मानव में इतना आत्मबल नहीं |
होता कि वह इन्हें बदलने का प्रयास कर पाए। मगर आचार्यप्रवर अपार आत्मबल के धनी थे। इसलिए कई रूढ़ियों को तोड़ पाए। सवाईमाधोपुर का आपका प्रथम चातुर्मास (सन् १९७४) इसी की एक कड़ी था। वहाँ पर पर्युषण के दौरान भाद्रपद कृष्णा चतुर्दशी को रोट पर्व मनाने की प्रथा थी। इस कारण से पर्युषण पर्वाराधन हेतु स्वाध्यायी बाहर दूसरे क्षेत्रों में जाने से हिचकिचा रहे थे। उन्हें प्रथा के भंग होने से अनिष्ट की आशंका भी थी। आचार्य श्री ने अपार आत्मबल का परिचय देते हुए अपनी जिम्मेदारी पर उन्हें रोट के दिवस की तिथि बदलकर पर्युषण में सेवा देने की प्रेरणा की। रोट के दिवस का प्रतिस्थापन दशमी को किया गया और पर्युषण में वहाँ से स्वाध्यायी जगह जगह पर धर्मध्यान की प्रभावना हेतु गये। किसी का कुछ भी अनिष्ट नहीं हुआ। निजी आत्मबल के दम पर ऐसे परिवर्तन का खतरा गुरुवर जैसे साहसी और धर्म में सच्ची श्रद्धा रखने वाले ही उठा सकते हैं। एक दिन एक व्यक्ति गुरुदेव श्री के दर्शनार्थ आया। भक्त था, श्रद्धालु था। गुरुदेव को वन्दना की, चरण स्पर्श किए। सुखसाता पृच्छा की। गुरुवर तो थे ही आत्मीयता के अनमोल सागर । व्यक्ति से धर्म-ध्यान आदि का पूछा। वार्ता के मध्य व्यक्ति ने अपना बेग खोला, एक पत्रिका निकाली, गुरुभगवंत के सम्मुख रखते हुए बोला“गुरुदेव ! बड़ा अनर्गल प्रलाप किया गया है इसमें । आपके उचित निर्णयों और सत्य विचारों पर दुराग्रह वश बड़ी तीखी कलम चलाई गई है। यह तो बहुत ही शर्मनाक बात है। हम इसका ऐसा प्रत्युत्तर देना चाहते हैं कि." "गुरुदेव ने उस भक्त की बात को यहीं रोकते हुए बहुत ही शांत स्थिर स्वर में कहा - "भाई ! यदि हम अपने
आप में सत्य हैं, यदि ज्ञान-दर्शन-चारित्र में हमारी सजगता निरन्तर बनी हुई है तो फिर कोई भी कुछ भी कहे या लिखे, हमें भला क्या चिन्ता। अब यदि आप कुछ लिखते हैं जवाब में, तो वे फिर कुछ लिखेंगे, आप फिर लिखेंगे, इसका तो कोई अन्त नहीं है। अच्छा तो यही है कि ऐसी पत्र-पत्रिकाओं और उनमें छपे ऐसे तथ्यहीन प्रकरणों को आप महत्त्व ही न दें।" कैसी समता ! कैसी शान्ति ! कैसा धैर्य ! धन्य है श्रमणाचार्य रूप में भी अरिहन्त सम वीतरागता के उज्ज्वल भावों के धारक पूज्य श्री हस्ती को।
('झलकियां जो इतिहास बन गई' पुस्तक से संकलित)