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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ६८६ जी म.सा. होली चातुर्मास के मांगलिक अवसर पर सरदारपुरा स्थित कोठारी भवन में विराजे हैं। आशा की किरण नेत्रों में झिलमिलाने लगी। कहते हैं डूबते को तिनके का सहारा पर्याप्त होता है। मगर यहाँ तो समूचा किनारा उन्हें उदात्त भाव से आमंत्रित कर रहा था। वे तुरन्त पुत्री सहित आचार्यप्रवर के दर्शनार्थ पहुंचे एवं अपनी दुःखद स्थिति प्रकट की। आचार्य श्री तो समाज के उद्धारक एवं दुखियों के तारणहार थे। उन्होंने ३ दिन तक उसे निरन्तर मंगलपाठ श्रवण कराया। धर्म का प्रताप व आचार्य भगवन्त का अतिशय देखिये, चौथे दिन ही वह पूर्ण शांत व स्वस्थ हो गयी। अनहोनी होनी बन गयी और कविता के जीवन में नये प्रभात का उदय हुआ। कविता अब पूर्ण स्वस्थ शांत है एवं अपने नवजीवन का सूत्रधार आचार्य श्री को ही मानती है, जिनके लिये उसके व उसके परिजनों के हृदय में असीम श्रद्धा, आभार व कृतज्ञता है। घटना कुछ वर्ष पूर्व की है। आचार्य श्री मध्यप्रदेश में इन्दौर के समीपस्थ गांवों में विचरण कर रहे थे। उसी समय इन्दौर में हीरामणि नामक एक लड़की मस्तिष्क ज्वर से ग्रसित हो गयी। व्याधि चरम सीमा तक पहुंच चुकी थी। परिजन यथा संभव सभी प्रयत्न करके हार चुके थे। यहाँ तक कि शहर के सुप्रसिद्ध चिकित्सक श्री नन्दलालजी बोरदिया ने भी लड़की को अस्पताल से छुट्टी देकर उसके जीवन की संभावना से स्पष्ट इंकार कर दिया था। लड़की की माता आचार्य श्री के प्रति बहुत श्रद्धा रखती थी। आचार्य श्री उस समय इन्दौर से २५ कि. मी. दूर सांवेर गांव में विराजमान थे। अत: अपनी पुत्री को कार में लेकर सांवेर तक आई और स्थानक में लाकर आचार्य श्री के श्री चरणों में बैठा दिया। अन्तर्यामी आचार्यप्रवर निश्छल वाणी में चिरपरिचित शैली में बोले, भोली, यह क्या कर रही है? अत्यन्त दु:ख के साथ माता ने उत्तर दिया- गुरुदेव, सभी चिकित्सक इंकार कर चुके हैं। अब आप इसे मांगलिक श्रवण करा दें तो मैं इसे शांति से घर ले जा सकूँगी। आचार्य श्री ने हीरामणि को मांगलिक श्रवण करा दिया। श्रद्धा और धर्म का प्रभाव देखिए, वह लड़की उसी क्षण स्वस्थ हो गयी और उठकर खड़ी हो गयी। आज वह खुशहाल जीवन व्यतीत कर रही है और अपने जीवन को गुरुदेव के आशीर्वाद का परिणाम मानकर उनके प्रति उपकृत है। • पता नहीं महापुरुषों के जीवन में ऐसी क्या अद्भुत, अलौकिक विशेषताएँ होती हैं कि मनुष्य तो मनुष्य, मूक पशु-पक्षी और सबसे बढकर कई बार प्रकृति तक उनके प्रति समर्पित हो जाती है। गुरुदेव के जीवन में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जब आश्चर्यजनक ढंग से प्रकृति भी उनके प्रति उदार बन जाती थी, समर्पित हो जाती थी। निमाज में गुरुदेव के संथारा लेने के पश्चात् बिना मौसम बादल बरसा कर वरुणदेव का उनके प्रति अपने श्रद्धासुमन अर्पित करना इसे सिद्ध करता है। गुरुदेव के जीवन काल में भी कई मौके ऐसे आए। मसलन गुरुदेव अक्सर गर्मियों में प्रात: काल या सांयकाल में ही विहार करते। दिन में विहार प्राय: सर्दियों में ही होता किन्तु कभी-कभार जब गर्मी में भी दिन को विहार करना आवश्यक हो जाता तो अनेकों बार साथ चल रहे सन्तगणों व भक्तगणों को यह देखकर आश्चर्य होता कि यकायक मौसम ठंडा हो जाता, आकाश में बादल छा जाते, धूप विलुप्त हो जाती और आपका विहार सरल हो जाता। ऐसा लगता मानो बादल छत्री बनकर आपके विहार में सहयोग दे रहे हों। दक्षिण प्रवास से आचार्य श्री मद्रास चातुर्मास पूर्ण कर राजस्थान की ओर पधार रहे थे। इसी विहार क्रम के दौरान आप के. जी. एफ. के पास बागलकोट पधारे। २० जनवरी १९८१ का वह दिन था। आपने सांयकाल
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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