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आचार्य श्री : जैसा मैंने देखा और पाया
• श्री मोतीलाल सुराना __ मैं अपनी जन्मभूमि रामपुरा (जिला मंदसौर) हाइस्कूल में पढ़ता था। आचार्य श्री हस्तीमल जी महाराज साहब का वहीं चातुर्मास था। मेरे पिताजी हेमराज जी से मुझे आचार्य श्री के बारे में ज्यादा बातें मालूम होती थी, क्योंकि एक तो मैं छोटा था, अतः आचार्य श्री के पास बार-बार जाने में शुरू शुरू में झिझक आती थी तथा दूसरा यह भी विचार आता था कि उनके ज्ञानाभ्यास में क्यों व्यवधान पैदा करूं क्योंकि पिताजी ने बतलाया था कि उनका चातुर्मास यहां केवल इसीलिए हुआ है कि यहां शांति है। शहरों जैसी आवागमन की स्थिति न होने से भक्तों की
ओर से भी कुछ समय की बचत होगी, तथा शास्त्रीय ज्ञानोपार्जन अधिक हो सकेगा। मुझे यह भी समझाया गया था कि ये सबसे कम उम्र के आचार्य हैं, संतों के समूह पर एक एक आचार्य होता है। सन्तों को चाहे वे उम्र में (या दीक्षा में) बड़े हों पर सभी बात आचार्य से पूछ कर करनी पड़ती है।
वैसे तो छोटी उम्र की कई बातें मैं भूल गया हूँ, पर रामपुरा का आचार्य श्री का वह चातुर्मास तो मुझे अच्छी तरह याद है। पंडित दुःखमोचन जी झा से आप ज्ञानाभ्यास सीखते थे। सतारा वाले सेठ साहब भी उस चातुर्मास में| दर्शनार्थ पधारे थे। यह सब मुझे याद है। क्यों याद है, इसका एक ही जवाब है कि उसी समय से आचार्य श्री की गहरी छाप मेरे हृदय पर पड़ी थी। घर में धार्मिक वातावरण होने से साधु-संतों के पास तो पहले भी जाता था, पर आचार्य श्री की वय, ज्ञानाभ्यास, छोटी उम्र में इस संसार को असार समझकर छोड़ना, इन सब बातों ने मुझ पर तथा मेरे साथी छात्रों पर बहुत असर किया था।
__ आचार्य श्री उस समय संस्कृत का अभ्यास करते थे। पं. दुःखमोचन जी झा को उस समय हम जब संस्कृत में किसी अन्य विद्वान से बात करते सुनते तो हमें आश्चर्य होता था कि क्या संस्कृत में भी बातचीत की जा सकती | है। मुझे याद है कि उस समय आचार्य श्री ने कुछ अंग्रेजी का अभ्यास भी शुरू किया था, क्योंकि जब भी हम | दर्शनार्थ जाते हमारे हाथ में भाषान्तर पाठमाला या ऐसी कोई पुस्तक होती तो वे उसे देखते तथा कभी कभी उसमें से कुछ नोट भी कर लेते थे।
इस चातुर्मास के बाद तो मुझे शाजापुर, सैलाना, भीलवाड़ा तथा अन्य कई स्थानों पर आचार्य श्री के दर्शनों का तथा प्रवचन सुनने का सुअवसर मिला। उन सभी क्षणों को मैंने अपना अहो भाग्य ही माना कि ऐसे ज्ञानवान क्रियावान-आत्मबली संत आज हमारे साधु-समाज में विद्यमान हैं।
__आचार्य श्री जैसी प्रवचन शैली, शास्त्रीय ज्ञान, एक एक शब्द तोलकर बोलने की आदत तथा स्मरण शक्ति | | बहुत कम संतो में मिलेगी।
इन सब बातों पर जब मैं विचार करता हूँ तो ऐसा मालूम पड़ता है कि बाल वय में जो संस्कार भरे जा सकते | हैं, वैसे सुसंस्कार शायद बड़ी उम्र वालों में इतनी आसानी से नहीं भरे जा सकते हैं।
साधु नियमों को बारीकी से पालने की आदत आपकी संप्रदाय में भी वर्षों से रही है। जब आप छोटे थे तब मुझे पिताजी ने बतलाया था कि आपके भोजन पर भी ध्यान रखा जाता था। भक्तजन तो श्रद्धावश अच्छा (पौष्टिक)