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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ६६२ भोजन बहराने का आग्रह करते थे, पर संतगण ऐसी चीजें लाते थे जो आपके स्वास्थ्य तथा भविष्य के लिए उचित हो। आपके साथी साधगण भी वैसा ही आहार करते थे। वे भी अन्य पदार्थ का उपयोग नहीं के बराबर करते थे। ऐसा नहीं कि वे कुछ और पदार्थ खावें तथा आचार्य श्री को कुछ और देवें । नवबाड़ सहित ब्रह्मचर्य पालन के लिए | जिस वातावरण का ध्यान रखना आवश्यक था, उसकी ओर जागरूक रहकर बालवय में आपका लालन-पालन अन्य संत करते थे।
कभी-कभी दीक्षा सम्बन्धी जो बातें चलती हैं उसमें बाल-दीक्षा की बात को लेकर लोग अपना अपना अलग मत रखते हैं पर यह बात निर्विवाद है कि यदि योग्य बालक कम उम्र में भी दीक्षा के लिए आग्रह करे तो पूरी पूरी सावधानी से उसके भावों की जांच करके उसे दीक्षा दी जाय तथा बाद में ऊपर वाले संत सभी बातों का उसके , जानाभ्यास का खान-पान का. अन्य वातावरण का परा परा ध्यान रखें तो फिर किसी शक की गंजाइश नहीं कि वह । दीक्षा कैसी होगी। हमारे सामने तो आचार्य श्री के सद्गुणों का तथा बालवय का यह एक पक्का उदाहरण है ही।
__आचार्य श्री की विद्वत्ता तथा वक्तृत्व-कला के विषय में जो भी लिखा जाय वह थोड़ा ही होगा। उनके प्रवचनों में, उपदेशों में, साहित्य में क्या बालक, क्या जवान, क्या वृद्ध सभी को एक सरीखी आध्यात्मिक खुराक | मिलती है जिसे ग्रहण करने के पश्चात् छोड़ने को दिल नहीं करता।
स्वाध्याय-सामायिक जैसे महत्त्व के विषय को आपने जन-जन तक पहुँचाने का जो सफल कार्य किया है वह . निश्चित ही अद्वितीय है। इन सब सफलताओं में एक रहस्य रहा हुआ है, वह है आचार्य श्री का सतत अध्यात्म चिंतन और कथनी-करनी में अद्भुत साम्य । आचार्य श्री की कायोत्सर्ग (काउस्सग) की स्थिति भी देखने लायक होती है। शरीर का कोई सा भी छोटे से छोटा भाग भी क्या मजाल की हिल जाय।
एक बात और लिखकर लेख समाप्त करता हूँ। पूज्य श्री जवाहर लाल जी म.सा. के विहार के समय आपके द्वारा मांगलिक सुनाने के प्रसंग स्वयं आपकी बुलन्दी के परिचायक हैं, जिन शासन के ऐसे प्रभावी आचार्य महाराज की सराहना जितनी की जावे, वह कम है। अपनी पूर्ण श्रद्धा के साथ शत-शत वंदना। (जिनवाणी के 'साधना अंक' सन् १९७३ से संकलित)
-इन्दौर (म.प्र.)