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________________ व्यक्ति में छुपी प्रतिभा के ज्ञायक और उन्नायक . श्री नाग्तन महता प्रतिपल स्मरणीय परमाराध्य महामहिम आचार्य भगवन्त पूज्य श्री १००८ श्री हस्तीमलजी म.सा. अप्रमत्त तप:पूत साधक महापुरुष थे। उस दिव्य-दिवाकर में समाज हित -चिन्तन की शुभभावना थी। उनके सान्निध्य में आने वाला व्यक्ति गुरुकृपा से कैसे निहाल होता, इसका उसे पता तक नहीं चलता और वह अपनी प्रतिभा को सहज विकसित करता जाता। वि.सं. २०२० में आचार्य भगवन्त का पीपाड़ सिटी चातुर्मास था। मैं उस समय राजकीय सेवा में शिक्षक पद पर रहकर कार्य करता था। मेरी माता श्री नित्य-प्रति प्रवचन श्रवण करने एवं सत्संग सेवा में जाया करती थी। करीब आठ नौ दिन तक मुझे गुरु चरण-सेवा में न जाते देख मातृ हृदय से निकला-“इत्ता मोटा महाराज अठे बिराज रहिया है, तूं चल मेरे साथ।” माँ की ममतामयी बात टालने की मेरी भावना नहीं थी, अत: मैं मध्याह्न में उनके साथ गुरु चरण-सेवा में | पहुँचा। वन्दन-नमन कर पूज्य गुरुदेव के समीप बैठते ही , करुणाकर ने एक बार माताश्री की ओर देखा, फिर मेरी ओर देखकर पूछा - "तूं क्या करता है ?" मेरा उत्तर था - "बाबजी ! मैं पड़ौस के गांव में मास्टर हूँ।” “अच्छा , तो तुम शिक्षक हो ?” पूज्य गुरुदेव का दूसरा प्रश्न था - "तुम्हारे अक्षर कैसे हैं ?" मैंने उत्तर में कहा - "जैसे दूसरों के अक्षर हैं वैसे मेरे।" पूज्य गुरुदेव ने आत्मीय भाव से फरमाया - "जरा लिखकर बताओ तो !” मैंने वहीं से कागज-पेन लेकर कुछ पंक्तियाँ लिखी और गुरुदेव के सम्मुख कागज रख दिया। ___ पूज्य गुरुदेव को शायद मेरे अक्षर ठीक लगे, अत: बड़े प्रेम से कहा - "नौरतन ! तुम दिन में एक-डेढ़ बजे | तक स्कूल से आ जाते हो, फिर थोड़ा समय निकालो तो तुम्हारा कुछ उपयोग हो सके।" पूज्य गुरुदेव के श्रीचरणों में बात का वह मेरा प्रथम अवसर था। मैं आचार्य भगवन्त की आत्मीयता से इतना आकर्षित हुआ कि स्कूल से लौटने के बाद भोजन करके सीधा राता उपाश्रय पहुँचता। वन्दन-नमन करने के साथ | पूज्य गुरुवर्य लेखन का कोई काम सौंपते और मैं वहीं बैठकर उसे करता रहता। मैं उस समय संकेत लिपि के मात्र अक्षर जानता था। रविवार को पूज्य गुरुदेव का प्रवचन सुना और मैंने श्रीचरणों में अपनी बात रखते निवेदन किया - “भगवन् ! मेरी यदि स्पीड होती तो मैं आपका प्रवचन लिखता।" मेरी रुचि व भावना को बढ़ावा मिले इस विचार से गुरुवर्य ने फरमाया - “तूं मेहनत करे तो लिख सकता | है।” पूज्यश्री के वचनों में न जाने क्या जादू था कि मैं दूसरे दिन शार्टहैण्ड की कॉपी - पेंसिल लेकर प्रवचन सभा में बैठ गया। कुछ लिखने में आया, कुछ छूट गया। संकेतों को हिन्दी रूपान्तर करने बैठा तो कर नहीं सका। दूसरे दिन अपनी कमजोरी बताते मैंने आचार्य भगवन्त के चरणों में निवेदन किया - “गुरुदेव ! संकेत लिपि
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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