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________________ आत्म-बल का चमत्कार • श्री सूरजमल मेहता २४ फरवरी १९५८ मिति फाल्गुन शुक्ला ६ सं. २०१४ को पं. रत्न उपाध्याय पूज्य श्री हस्तीमलजी म.सा. अपने शिष्यों सहित अलवर से विहार कर ७ मील दूर स्थित बहाला ग्राम पधारे हुए थे। वहां पर दोपहर बाद करीब डेढ़ बजे की घटना है, जब कि महाराज श्री कोठरी के बाहर चबूतरे पर ध्यान को विराजे थे। ध्यान समाप्त होते ही महाराज सा. की दृष्टि सामने गई और देखा कि मकान के बाहर २-३ आदमी लाठियाँ लेकर खड़े हैं और भीतर से घबराई हुई सी आवाज आ रही है। बाहर खड़े आदमी छप्पर की ओर देख रहे थे और भीतर से कोई छप्पर का घास हटा रहा था। कुछ अनुमान कर महाराज श्री उठे, साथ ही वैरागी राजेन्द्र आगे घर की ओर बढ़ कर बोले कि मारो मत । इतने में दीवाल पर सर्प दिखाई पड़ा जो भीतर से लाठी द्वारा बाहर फेंका जा रहा था। महाराज ने ओघा झोपड़ी के नीचे किया और एक गज भर लंबा सर्प उस पर लिपट गया। महाराज श्री ग्राम के बाहर छोड़ने को ले चले। साथ में अलवर के और भी २-३ भाई (जो कि दर्शनार्थ आए थे) ग्राम के ५-१० लोग जो वहां खड़े थे ,चल पड़े। रास्ते में म.सा. ने उसको हाथ से सहलाया। थोड़े आगे जाने पर वह उतरने लगा। म.सा. ने पीठ दबाये थोड़ी दूर संभाला और ग्राम के बाहर जाकर भूमि पर टिकाया तो मुंह फाड कर वह कुछ उगलने लगा और देखते ही देखते एक बड़ा (करीब ९-१० इंच लंबा) चूहा उगल दिया। देखने वालों को बडा ताज्जुब हुआ। शायद सर्प को भी संतों के हाथ लगने पर हिंसा से घृणा हो गई हो। अस्त ! सर्प फिर ग्राम की ओर बढ़ने लगा। महाराज ने २-३ बार रजोहरण से उसका मुंह दूसरी तरफ किया, किन्तु उसकी इच्छा तो ग्राम की ओर ही जान को थी, अत: महाराज ने उसे फिर ओघे पर उठाया और आगे छोड़ने को चले। रास्ते में एक बार वह नीचे गिर पड़ा और पास ही घास में छिप गया। रास्ते के पास होने से लोग भी निर्भय नहीं थे, उन्हें खतरा था, अत: उसे हाथ से उठाकर ओघे की डंडी पर रखा और आगे ले चले। आस पास में कोई बिल न होने से महाराज उसे दूर ले गये ओर छोड़ दिया। वह वापिस | ग्राम की ओर आने लगा तब ग्राम वालों ने भय वश दूर छोड़ने को कहा। म.सा. ने जब मना किया तो उसने २-३ | बार फुफकार भी मारी और उछला कूदा। अंत में उसकी इच्छानुसार जाने को छोडकर म. श्री देखते खड़े रहे और कहते रहे कि इधर नहीं उधर जाओ। वह भी समझ गया और कुछ दूर जाने पर एक खेत की तरफ चला गया। | सुरक्षित स्थान में चले जाने पर म.सा. भी पधार गये। इस घटना से ग्राम वाले भाइयों की पूज्य प्रवर, जैन धर्म एवं अहिंसा पर बड़ी श्रद्धा हुई और वे पूज्य श्री के आत्मबल एवं आत्म विश्वास की बड़ी सराहना करने लगे। यह है प्राणिमात्र पर समभाव एवं आत्म बल की एक आँखों देखी घटना । (जिनवाणी अप्रेल १९५८ से साभार) चार्टर्ड एकाउन्टेट , अलवर
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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