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________________ विशिष्ट ध्यान-साधक आचार्य हस्ती . श्री प्रकाश चन्द जैन जिनके जीवन में ज्ञान की अतुल गहराई थी, चारित्र की अद्वितीय ऊँचाई थी, संयम का अनूठा तेज था, ब्रह्मचर्य का देदीप्यमान ओज था, दया-करुणा तथा ममता का स्रोत था, उन आचार्य श्री हस्ती का जीवन जन-जन के आकर्षण का केन्द्र था। चन्द्रमा के समान सौम्य एवं सूर्य के समान तेजस्वी, गुलाब के समान मुस्कराते हुए उनके चेहरे को देखकर भक्त हृदय आनन्द के सागर में डूब जाता था। उन्होंने अपने ७१ वर्ष के साधना-काल में सामायिक स्वाध्याय व ध्यान-साधना पर विशेष बल दिया। प्रतिदिन दोपहर १२ से १ का समय ध्यान के लिए नियत था। ध्यान से चित्त की शुद्धता बढ़ती जाती है और परिणामस्वरूप अनेक अज्ञात बातें ज्ञात हो जाती हैं। आचार्य श्री के ध्यान सम्बन्धी दो संस्मरण स्मृति-पटल पर अंकित हैं, वे इस प्रकार हैं (१) वर्धमान नगर, नागपुर के जैन स्थानक में सुश्रावक श्रीप्रेमजी भाई नागसी आदि बन्धु सेवा में उपस्थित होकर ध्यान संबंधी चर्चा करने लगे। चक्रों की अनुभूति की बात चली। उस समय आचार्य श्री ने यह भाव फरमाये - “मैं करीब ४० वर्षों से निरन्तर नियमित समय पर ध्यान करता हूँ, मुझे तो अभी तक चक्रों की अनुभूति नहीं हुई है। लेकिन ध्यान-साधना से चित्त की शुद्धता इतनी बढ़ जाती है कि अनेक बातें ध्यान के समय प्रत्यक्ष दिखाई देने लगती हैं। अजमेर सम्मेलन के समय आचार्य सम्राट् श्री आत्मारामजी म.सा. का एक शिष्य कहीं चला गया था। आचार्य श्री को बहुत चिन्ता हुई मुझे भी वह समाचार ज्ञात हुये। १२ बजे के समय जब मैं ध्यान में बैठा तो वह साधु मुझे एक मकान के कमरे के कोने में बैठा हुआ दिखाई दिया। मैंने एक भक्त श्रावक को ध्यान समाप्ति पर बुलाकर उस स्थान पर जाने का संकेत किया। उन्होंने वहाँ जाकर देखा तो वह साधु उस स्थान पर बैठा हुआ था। आचार्य श्री आत्माराम जी म.सा. को समाचार देकर उस साधु को वापस लाया गया । यह कोई चमत्कार नहीं था। चित्त की शुद्धि से यह सम्भव हो जाता है।" ___(२) बोरवड़ (महाराष्ट्र) के जैन स्थानक में आचार्य श्री अपनी शिष्यमण्डली सहित विराजमान थे। मैं सामायिक | करके तिलक विद्यापीठ पूना की संस्कृत-परीक्षा के पाठ्यक्रम का अध्ययन कर रहा था। आचार्य श्री ने मुझसे कहा - “भाई ! इस पुस्तक के कुछ श्लोक कंठस्थ करलो।” मैंने कहा - "गुरुदेव । परीक्षा में श्लोक नहीं पूछे जाते, केवल अर्थ व प्रश्नोत्तर ही पूछते हैं । गुरुदेव मुस्कराते हुये बोले - “भैय्या ! याद करने में क्या नुकसान है। अभी ५ श्लोक याद कर मुझे सुनाना । मैंने आचार्य श्री के आदेश को शिरोधार्य करके ८-१० श्लोक कंठस्थ कर लिये। परीक्षा के प्रश्नपत्र में एक प्रश्न आया, कोई भी २ श्लोक लिखिए। मैंने तत्काल गुरुकृपा से याद किये गये श्लोकों में से २ श्लोक शीघ्र लिख दिये । आचार्य श्री की उस बात को याद कर मैं मन ही मन उन्हें वन्दना कर रहा था। ऐसे महान् आत्मसाधक, ध्यान योगी, जिनशासन के महान् नक्षत्र आचार्य देव के चरणों में शत शत वन्दना। प्राचार्य, श्री महावीर जैन स्वाध्याय विद्यापीठ, जलगाँव
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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