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साधना के धनी
श्री प्रेमचन्द कोठारी
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भारत भूमि पर अनेक सन्त-महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने अपनी साधना एवं आत्म-कल्याण के साथ - साथ विश्व | को भी मार्गदर्शन दिया है। उन महापुरुषों में श्रद्धेय आचार्य श्री हस्ती का भी अपना विशिष्ट स्थान रहा है। आचार्य श्री का समग्र जीवन अनेक प्रेरक प्रसंगों से भरा हुआ था। यों लिख दिया जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वह महापुरुष प्रेरणा का चलता-फिरता बोलता कोष था । साधक को साधना में लगाने की उनमें आकर्षक शैली थी।
एक बार मैंने आचार्य श्री के दर्शन किये। अक्सर जब भी कोई उनके निकट आता तो उनका लक्ष्य उसको आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर करने का रहता था। मैं उस समय नित्य सिर्फ एक सामायिक करता था । आचार्य श्री
पूछा, 'सामायिक करते हो ?' निवेदन किया, 'करता हूँ।' फिर पूछा, 'कितनी करते हो ?' निवेदन किया, 'एक करता हूँ।' शिक्षा दी, 'भाई आगे बढ़ो।' उत्तर था, अवकाश की कमी है।' आचार्य श्री ने फरमाया, "भाई दो सामायिक नहीं कर सकते हो तो भी सामायिक का काल बढ़ा कर सवा सामायिक कर लो अर्थात् जीवन का एक घंटा | संवर - सामायिक में लगाओ व उस बढ़ाये हुए समय में नियमित व व्यवस्थित स्वाध्याय करो। " बात सरलता से गले उतर गई, व जीवन में स्थान दे दिया। बाद में जब भी दर्शन का प्रसंग आता, पूछते रहते, 'साधना चल रही है और आगे बढ़ो, आज क्या नियम लोगे ?' इस तरह के व्यवहार से प्रत्येक निकट आने वाले व्यक्ति को ऐसा लगता था "गुरुदेव की मेरे ऊपर असीम कृपा है, मेरी गतिविधि का ध्यान रखते हैं", जबकि सभी के साथ उनका ऐसा ही आकर्षक कुशल व्यवहार रहता था। इसी प्रकार निकट आने वाले की पात्रता देखकर उसे वे किसी न किसी संवर- क्रिया से जोड़ने में कुशल थे ।
स्वयं की साधना के साथ-साथ संघ- सेवा का भी पूरा लक्ष्य था । आचार्य श्री अन्तिम बार जब बून्दी पधारे थे, उस समय मैंने व्यापार से निवृत्ति ले थी, मेरी भावना थी कि मैं सदा के लिए मौन रख कर एक तरफ बैठ कर मात्र धर्मध्यान में ही जीवन बिताऊं। मैंने सोचा कि आचार्य श्री की संघ सेवा की तीव्र पैनी अनुभवी दृष्टि है, अतः इस विषय में आपसे मार्ग-दर्शन या प्रेरणा प्राप्त करूं । आचार्य श्री ने पहले तो फरमाया कि मेरा निर्णय उचित है, लेकिन बाद में फरमाया- " भाई मैं तो अभी ८० वर्ष की अवस्था में भी गाँव-गाँव विहार कर जिनशासन की प्रभावना की भावना रखता हूँ और तुम एक तरफ बैठना चाहते हो । अपनी साधना भी करो व संघ- सेवा भी । जिस संघ की छत्र छाया के कारण तुम्हें परम्परागत संस्कार मिले हैं, तुम्हारा विकास हुआ है उस संघ को तुम्हारी योग्यता, शक्ति एवं समय का लाभ मिलना चाहिए । जिनशासन की प्रभावना के लिए भी पुरुषार्थ करना चाहिए।” उसी प्रेरणा के कारण आज मैं संघ-सेवा से जुड़ा हुआ हूँ, संघ-सेवा में रुचि बनी हुई है।
मुझे ऐसी जानकारी मिली कि आप अन्तिम समय जब निमाज विराज रहे थे, उस समय अन्य सम्प्रदाय से निकले दो सन्त आपके दर्शन करने व साता पूछने पधारे। सन्तों ने आपसे शिक्षा फरमाने हेतु निवेदन किया । आचार्य श्री ने फरमाया " मेरा तो यही कहना है कि आप जहाँ से आये हो, वहीं वापस जावें, अपने ठिकाने पर ही अपनी प्रतिष्ठा व शोभा है। " कितना निष्पक्ष एवं उचित मार्गदर्शन था। अन्य सम्प्रदाय के होने पर भी उस सम्प्रदाय के प्रति उनके मन में हीन भाव पैदा होने वाली बात नहीं कही ।