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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
इस महापुरुष ने वि.सं. १९०२ ज्येष्ठ शुक्ला चतुर्दशी को महाप्रयाण कर दिया। आपके संयमनिष्ठ जीवन व प्रबल पराक्रम से रत्नवंश आज भी महिमा मंडित है, आज भी आपका जीवनादर्श भव्य जीवों का पथ आलोकित कर रहा ||
पूज्यपाद आचार्य श्री रत्नचंदजी म. के देवलोक गमन के बाद उनके पट्ट को सुशोभित किया उनके सुशिष्य पूज्य श्री हम्मीरमलजी म.सा. ने । आपका जन्म नागौर में धर्मनिष्ठ सद्गृहस्थ श्री नगराजजी गांधी की धर्मपरायणा धर्मपत्नी ज्ञानकुमारी जी की कुक्षि से हुआ। माता-पिता की वात्सल्यमयी गोद में आपने बाल लीला के ग्यारह वर्ष व्यतीत किये। कुटिल कालचक्र ने प्रहार किया व बालक हम्मीर मात्र ग्यारह वर्ष की उम्र में पिता श्री की छत्रछाया से वंचित हो गया। माता व पुत्र दोनों ही नागौर से पीपाड़ आ गये, जहाँ उन्हें महासतीजी वरजू जी महाराज के पावन दर्शन व सान्निध्य का लाभ प्राप्त हुआ। महासतीजी के दर्शन, समागम व उपदेश श्रवण से माता-पुत्र ने संसार की असारता व क्षण-भंगुरता समझी व उनका हृदय वैराग्य रंग में रंग गया। माताश्री ने अपने हृदय की भावना महासतीजी महाराज के समक्ष व्यक्त की। महासतीजी की प्रेरणा पाकर माता अपने पुत्र के साथ पूज्य आचार्य श्री रत्नचंदजी मसा. की सेवा में बिरांटिया पहुंची और अपने पुत्र को उनके चरणों में समर्पित कर भागवती दीक्षा प्रदान करने की प्रार्थना की। माता की भावना के अनुसार बिरांटिया में ही संवत् १८६२ फाल्गुन शुक्ला सप्तमी को ११ वर्षीय बालक हम्मीरमल को पूज्य आचार्य श्री ने भागवती दीक्षा प्रदान की। पुत्र को दीक्षा | दिलाकर माता ने भी महासती वरजूजी के पास दीक्षा धारण की।
बुद्धि, प्रतिभा, विनय, परिश्रम और गुरु कृपा से बालक मुनि हम्मीरमलजी म.सा. ने शीघ्र ही अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली। पूज्य श्री जैसे समर्थ विद्वान आचार्य गुरु हों और मुनि हम्मीर जैसे विनय सम्पन्न प्रतिभा सम्पन्न शिष्य हों तो उस अध्ययन की बात ही क्या ! आपने गुरु-सेवा में रह कर शास्त्रों व संस्कृत-प्राकृत का गंभीर अध्ययन किया। ज्ञान-साधना ही नहीं, आपकी तप-साधना व संयम-साधना भी विशिष्ट थी। भीषण सर्दी में भी आप मात्र एक पछेवड़ी ही धारण करते। घृत के अतिरिक्त अन्य चार विगयों, दूध, दही, तेल व मीठा के आपके त्याग थे। यही नहीं पके अचित्त हरे शाक का भी आपके त्याग था। ____ आप अनन्य गुरु भक्त थे। पूज्य श्री रत्नचन्द्र जी म.सा. के विराजते आपने एक भी चातुर्मास उनसे अलग नहीं किया। गुरुदेव के स्वर्गारोहण के पश्चात् व्यथित हृदय से भी आपका गुणगान कैसा होता था
पूज विरह दिन दोहला हो निकले वरस समान।
कहे हमीर किम विसरूं हो, सत गुरु जीवन प्राण हो ।। आपका उपदेश अत्यन्त प्रभावोत्पादक था। आपकी वैराग्यमयी वाणी-सुधा ने अनेक भव्यात्माओं और भक्तजनों को नवजीवन प्रदान किया। आपके हृदय में प्रभु-भक्ति का रस निरन्तर प्रभावित होता रहता। 'दीवसमा आयरिया' की उक्ति सार्थक करते हुए आपने अनेक व्यक्तियों के जीवन को भक्ति व ज्ञान से पावन किया, जिसका साक्षात् प्रमाण विनयचंद चौबीसी के रचयिता, दईकडा ग्राम निवासी कविश्रेष्ठ श्री विनयचन्दजी कुम्भट का जीवन है । बाल्यकाल से ही प्रज्ञाचक्षु विनयचन्दजी ने पूज्य श्री की सेवा व समागम का स्वर्णिम संयोग मिलने पर जैन धर्म का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया व पूज्य गुरुदेव के वचन रूपी बीज आपके हृदय-क्षेत्र में अंकुरित होकर विनयचंद चौबीसी के रूप में पल्लवित पुष्पित हुए ।
चौबीस तीर्थङ्करों की भावभीनी स्तुति के अनन्तर कवि विनयचन्दजी ने कलश में आचार्य श्री हम्मीरमल जी