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________________ प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड | महाराज के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए कहा है चौबीस तीरथनाथ कीति गावतां मन गह गहे । कुम्भट गोकुलचन्द - नन्दन विनयचन्द' इण पर कहे। उपदेश पूज्य हमीर मुनि को तत्त्व निज उर में धरी, उगणीस सौ छ के छमच्छर महास्तुति यह पूरण करी । || ७ पूज्य श्री हम्मीरमलजी म.सा. का अन्तिम चातुर्मास नागौर में हुआ व वि.सं. १९१० कार्तिक कृष्णा एकम को संथारा समाधि के साथ आपने देवलोक गमन किया । आपके देवलोक गमन के पश्चात् आपके पट्ट पर पूज्य श्री कजोड़ीमलजी म.सा. विराजे। आपका जन्म किशनगढ में ओसवाल वंशीय सुश्रावक श्री शम्भूमलजी की धर्मपत्नी धर्मपरायणा बदनकंवर जी की कुक्षि से हुआ । होनहारिता व बुद्धि की कुशाग्रता आपकी जन्मजात विशेषता थी । आठ वर्ष की कोमल अवस्था में ही आपके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया। काल का कैसा अनभ वज्रपात ! आप किशनगढ से अजमेर आ गये । पुण्ययोग से आपको मुनि श्री भैरूमल्लजी महाराज के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ । मुनिश्री के दर्शन और उनकी हितमित ओजस्वी वाणी से आपकी धर्म की ओर विशेष अभिरुचि हो गई और शीघ्र ही आपने सामायिक व प्रतिक्रमण का अभ्यास कर लिया । शनै: शनै: आपकी वैराग्यभावना बढ़ने लगी व आपने रात्रि - भोजन व हरी वनस्पति के त्याग कर दिये । शुभ योग से पूज्यपाद आचार्य श्री रत्नचंदजी म.सा. का अजमेर पदार्पण हुआ। पूज्य श्री की पातक प्रक्षालिनी प्रवचन सुधा ने आपके हृदय में रहे हुए वैराग्य बीज को अंकुरित व पल्लवित कर दिया व आपने उन्हें शीघ्र दीक्षा | देने की प्रार्थना की। आपकी प्रार्थना पर पूज्य श्री ने आपको जीव दया की साधना करने की प्रेरणा दी। यह सुनकर | आत्महित की कामना से आपने जीवन पर्यन्त आरम्भ का त्याग कर लिया। कैसा उत्कट वैराग्य ! गुरु वचनों में कैसी | आस्था ! 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि' । परिजनों ने दीक्षा के विरुद्ध प्रपञ्च फैलाना प्रारम्भ किया, पर आपने निश्चल भाव | और शान्ति से विरोध का मुकाबला किया। आपकी दृढता देखकर न्यायाधीश को भी अनुमति प्रदान करनी पड़ी व वि.सं. १८८७ माघ शुक्ला ७ के दिन अजमेर में आचार्य भगवन्त श्री रलचंदजी म.सा. के कर कमलों से आप दीक्षित हुए। आप तीव्र मेधा के धनी थे व थोड़े ही समय में आपने सिद्धान्तों का गहन अध्ययन कर लिया। आचार्य श्री ने आपकी योग्यता के और अधिक विकास हेतु आपको अपने गुणश्रेष्ठ शिष्य श्री हम्मीरमलजी महाराज की निश्रा में रख दिया। थोडे ही समय में आपके ज्ञान- दर्शन - चारित्र की परिपक्वता व आत्म-शक्ति से संतुष्ट हो गुरुदेव ने आपको स्वतंत्र रूप से विहार कर धर्म जागृति की आज्ञा प्रदान की। आपकी पीयूषपावनी वाणी से अनेक व्यक्ति जिन धर्मानुरागी बने । संयम के नियमों का आप कठोरता से पालन करते थे । आप एक ही चादर से शीत, उष्ण और वर्षाकाल व्यतीत करते । आपकी शारीरिक कान्ति अनुपम थी। आप गौरवर्ण, शरीर से सुडोल व कद से लम्बे थे । आपके नेत्र केहरी के समान तेजस्वी थे तो वाणी में घनगर्जना सी गम्भीरता और अद्भुत आकर्षण था । कहना होगा आपके व्यक्तित्व और तपस्तेज कारण आपके सम्पर्क में जो भी आता, वह प्रभावित हुये बिना नहीं रहता था। . पूज्य आचार्य श्री हम्मीरमलजी महाराज के स्वर्गवास के पश्चात् सम्प्रदाय के संचालन और संरक्षण की | शक्ति, आगमों की अभिज्ञता, विद्वत्ता, शरीर सम्पदा, प्रतिभा, योग्यता आदि सब दृष्टियों से चतुर्विध संघ ने आपको | आचार्यपद देने का निर्णय लिया । वि.सं. १९१० माघ शुक्ला पंचमी को २४ साधु-साध्वियों और हजारों श्रावक-श्राविकाओं की उपस्थिति में आपको आचार्य पद प्रदान किया गया। आपके संयम, पाण्डित्य व तप का ( इतना तीव्र तेज था कि वक्रवचनी और कुटिल बुद्धि कुतर्कियों को भी आपसे कुतर्क करने की हिम्मत नहीं होती
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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