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________________ प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड लिये उपदेश छत्तीसी, आचार छत्तीसी आदि की रचना की। आपकी काव्य-रचनाओं में साध्वाचार की विकृति पर आपकी हृदय की अन्तर्वेदना व्यक्त होती है। “वेश धर यू ही ही जन्म गमायो' _ जैसी रचनाएँ आपकी मनोव्यथा || को सुस्पष्ट करती हैं। प्रबुद्धजन से लेकर जन-साधारण तक सर्वमान्य, प्रखर-प्रतिभा व व्यापक-प्रभाव के धनी आप महापुरुष प्रचार | व कीर्ति कामना से कोसों दूर थे। आपकी साधना आत्मोत्थान के लिये थी, लोकैषणा व कीर्ति कामना के लिये नहीं। नव कोटि मारवाड़ के धनी राज राजेश्वर महाराजा मानसिंह जी ने आपके उच्च संयम, प्रकांड पांडित्य व प्रखर प्रतिभा के साथ-साथ यह भी सुना कि आपके पास एक तपस्वी संत हैं जो वचनसिद्ध हैं तो महाराजा मानसिंह ने आपके दर्शन करने के लिये आने का विचार किया। जहां पूज्य श्री विराजित थे, वहां बिछायत होने लगी। विशिष्ट | तैयारी देख कर आपने पृच्छा की। ज्यों ही आपको महाराजाधिराज के आने की जानकारी मिली तो यह कहकर कि 'भाई, डोकरी के घर में नाहर को कई काम' आप विहार कर गये। आपकी निस्पृहता और फक्कड़पन देख कर महाराजा मानसिंह के मुख से बरबस निकल पड़ा “काहू की न आश राखे, काहू पै न दीन भाखे, करत प्रणाम जाळू, राजा राणा जेवड़ा। सीधी सी आरोग रोटी, बैठा बात करे मोटी, ओढण ने राखे झीणा सा पछेवड़ा ।। धन धन कहे लोक, कबह न राखे शोक, बाजत मृदंग चंग जमीं मांहि जो बड़ा। कहे नृप मानसिंह दुःखी तो जगत सब, सुखी जैन सेवड़ा ।।" आचार्य श्री की यह कीर्ति-निस्पृहता उनके जीवन को प्रतिबिम्बित कर रही है, जो एक आदर्श है। सच्चे सुधारक के रूप में आपने तत्कालीन परिस्थितियों को बदलने का भगीरथ प्रयास किया और अर्द्धशताब्दी पर्यन्त अपने ज्ञान और संयम की अखंड ज्योति द्वारा जिनशासन की जाहो जलाली की। स्थानकवासी परम्परा के अभ्युत्थान के लिये आपके प्रयास जैन इतिहास में सदा स्वर्णाक्षरों में मण्डित रहेंगे। आपके ज्ञान-दर्शन-चारित्र से प्रभावित होकर अनेक भव्यात्माओं ने आपके पास भागवती दीक्षा अंगीकार की व सहस्रों व्यक्तियों ने आपसे सम्यक्त्व बोध प्राप्त किया। पूज्य श्री हम्मीर मलजी म.सा. आपके प्रमुख शिष्य और नवकोटि मारवाड़ के तत्कालीन दीवान (प्रधानमंत्री) श्री लक्ष्मीचन्दजी मुथा आपके अग्रगण्य श्रावक थे। अपने जीवन के अन्तिम तीन माह आपने जोधपुर में ही बिताये, जहां मुथा जी व अन्य भक्त समुदाय ने आपके सान्निध्य व सेवा का पूर्ण लाभ लिया। अपना अन्तिम समय जानकर आपने संथारा के भाव व्यक्त किये व अपने प्रमुख शिष्य पूज्य श्री हम्मीर मलजी म.सा. को जो भोलावणे दी, वे आपकी आचार निष्ठा व आपके संयम जीवन को मूर्त रूप में व्यक्त करती हैं-“१. पूज्य गुमानचन्दजी म. २१ बोल बांधिया ज्यारी पकावट राखजो। २. मैं आचार संबंधी ढाला बणाइ तिके बोल सेंठा राखजे। ३. सागारी सुं समभाव राखजे। ४. आरजिया सुं समभाव राखजे । ५. इसो वरतण राखजो सुं इण लोक में शोभा होवे ने परलोक रा आराधक हुवो, इसो काम करजो।" महाप्रतापी आचार्यप्रवर ने अपने शिष्य को भोलावण देने के पश्चात् सबसे क्षमायाचना की। क्षमा का आदान-प्रदान करके पूज्य श्री ने मुनि श्री हम्मीरमलजी म. के समक्ष पूर्ण आलोचना की। संलेखना संथारा के साथ | -
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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