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(तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड
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इसके पहले मैं यह बता देना चाहता हूँ कि कुछ सालों से मेरे विचार नास्तिकता की तरफ झुक गये थे और साहित्य भी मैं उसी तरह का पढ़ता था। पर गुरु महाराज के प्रति असीम आकर्षण के वश साल में एक बार दर्शन करने जरूर जाता था। वंदन करने के बाद तुरन्त मांगलिक फरमा देते थे, क्योंकि वे जानते थे कि यह खाली दर्शन करने ही आता है। न माला फेरने, न सामायिक या स्वाध्याय के लिए और न ही कोई व्रत लेने के लिये मेरे से || कहा । वे तो अन्तर्ज्ञाता थे कि यह अभी इस तरह की मानसिक स्थिति में नहीं है।
युद्धकाल में बालोतरा चातुर्मास था। हीरा मुनि सा. नीचे विराज रहे थे, गुरु महाराज के दर्शन करके ऊपर से नीचे आया तो उन्होंने मुझे बुलाया और उलाहना देने लगे कि जोगीदासजी का पोता होकर माला भी नहीं फेरते हो। चूंकि मेरी उस समय नास्तिक विचार-धारा थी। मैं माला फेरने व व्रत के विरोध में बहस करने लगा। बहस जोर की होने से ऊपर गुरुदेव ने सुन लिया। नीचे झाँककर हीरा मुनिजी से फरमाया कि इसे जाने दो, रोको मत, समय पर मैं ही उसे समझाऊँगा। कितना धैर्य, अपने आप पर कितना विश्वास? आज भी मुझे ताज्जुब होता है कि मैं उनसे दूर | था, पर वे मुझे अपने कितना निकट समझते थे। सच ही कहा है शिष्य गुरु को नहीं ढूँढता, गुरु शिष्य को ढूँढ लेता है। व्यक्ति को पहचानने की उनमें कितनी बड़ी सामर्थ्य थी। मेरे जैसे हजारों व्यक्तियों को उन्होंने पहिचाना, ढूँढा, और धर्म की तरफ मोड़ा।
काफी भागदौड़ और निरन्तर विनति से द्रवित होकर उन्होंने मुझ पर करुणा की वर्षा की। आगार सहित | इन्दौर चातुर्मास की स्वीकृति फरमाई। उज्जैन वालों की भी उस समय जोरदार विनति थी।
नागदा जो इंदौर से ७० किलोमीटर करीब है, वहाँ से एक रास्ता उज्जैन भी जाता है, मैं, मेरी पत्नी और बस्तीमलजी नागदा गये। वंदन करने के पश्चात् यकायक गुरु महाराज ने फरमाया कि भंवरलाल ! अब मेरा कर्जा | उतार दे। मैं भी असमंजस में पड़ गया कि कौन से कर्ज की बात हो रही है। गुरु का कर्जा तो कभी उतरता नहीं। मैं उस समय इंदौर चातुर्मास की खुशी में था। आगार में उज्जैन भी खुला था, इसलिए और भी शंका थी। मैंने भी उस समय फिर से वंदना करके हाथ जोड़कर कहा कि कर्जा ब्याज समेत ले लीजिये। गुरु महाराज ने फरमाया कि ब्याजसमेत की बात कर रहा है तो पति-पत्नी दोनों नित्य एक सामायिक करने का व्रत ले लो। कितने लम्बे समय तक धैर्य, अपने आसामी पर कितना विश्वास- आम पक गया है, उसे तोड़ लेने की कितनी अपार शक्ति । हम दोनों ने तुरन्त हाथ जोड़कर व्रत ले लिया। जो आज भी बदस्तूर जारी है। तीन चार बार पर्युषण-सेवा में उनकी आज्ञा से बाहर भी गया हूँ। उनका फरमाना था कि तुम्हारे सरीखे स्वाध्यायी बनकर बाहर जाकर सेवा दें तो दूसरों पर भी असर पड़ता है।
इंदौर चातुर्मास की उपलब्धियाँ गिनाना सहज नहीं है। उस समय तक इंदौर जैसे बड़े शहर में कुछ ही लोगों को प्रतिक्रमण आता था। निरन्तर प्रेरणा से वहाँ कई लोगों ने प्रतिक्रमण सीखा। स्वाध्याय संघ की स्थापना हुई। कई स्वाध्यायी बाहर क्षेत्रों में जाकर सेवा देने लगे। वह क्रम आज भी जारी है। इसमें अशोक मण्डलिक व विमल तातेड़ ने सक्रिय सहयोग किया।
समाज में विद्वानों की कमी गुरु महाराज को निरन्तर खटकती रहती थी। आज भी स्थिति कुछ ठीक नहीं है। एक प्रयास के रूप में उस समय इंदौर में पहली विद्वत् परिषद आयोजित की गयी और बहुत से विद्वानों का सम्मेलन | हुआ जो आज भी कम ज्यादा रूप से चालू है। विद्वानों को आदर सत्कार देने एवं आर्थिक रूप से उनको समृद्ध | बनाने में आज भी हमारा समाज उदासीन है। गुरु महाराज की अगर सचमुच में हमें बात माननी है तो समाज को