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________________ नमो परिसवरगंधहत्थीणं ५६० इस काम में तन-मन-धन से आगे आना चाहिये। __ पर्युषण में उपस्थिति ज्यादा होगी, इसलिये गुरु महाराज को लाउडस्पीकर का उपयोग करना चाहिए, ऐसी सुगबुगाहट इंदौर में होने लगी। वे अपनी समाचारी के पक्के थे, इसलिए लाउडस्पीकर पर बोलने का तो सवाल ही नहीं उठता। एक दिन पर्युषण के पूर्व महावीर भवन राजवाडा से गुरु महाराज दो संतों के साथ जानकी नगर पधारे । मैं उस समय महावीर भवन में था ।। शहरवालों को आशंका हुई कि हमारे लाउडस्पीकर की सुगबुगाहट से आचार्य श्री कहीं जानकीनगर तो न विराज जायें । जानकी नगर की उस समय स्थिति ऐसी थी कि संतों को ठहराने या सामायिक करने का कोई स्थान नहीं था। टीन के शेड में भयंकर गर्मी में उस दिन वहाँ विराजे। शहर के भी बहुत से लोग आ गये थे। आज तो जानकी नगर में जैन भवन है, बड़ा जैन स्थानक है। आज इंदौर में जानकी नगर पोश कालोनी मानी जाती है और शहर वाले उस कालोनी को मिनी मारवाड़ के नाम से कहते हैं। ___ मेरे छोटे भाई अनूपकुमार की पत्नी ने उस चातुर्मास में मासखमण की तपश्चर्या की। प्रत्याख्यान के दिन महावीर भवन में सचित्त नारियल सबको प्रभावना में बांटे। गुरु महाराज को तत्काल मालूम हो गया। मेरे को बुलाया और फरमाया कि तुमसे मुझे यह उम्मीद नहीं थी कि तुम ही मेरे नियमों को भंग करोगे। मेरी, पूरे परिवार की व पारणा करने वाली की हार्दिक इच्छा थी कि पारणा के दिन गुरु महाराज घर पधारें व आहार-पानी का लाभ दिरावें। मिश्री से कोमल हृदय वाले , किन्तु नियम, समाचारी के कठोर रक्षक मेरे घर नहीं पधारे, क्योंकि सचित्त नारियल बांट कर उनको ठेस पहुंचाई थी। उसी दिन हस्तीमलजी झेलावत की पत्नी के पारणा था, वहाँ पधार गये। नियम के लिए नजदीक दूर का उनके लिए कोई महत्त्व नहीं था। छह माह तक कोई साधक, साधु, श्रावक झूठ न बोले और सम्यक् आचरण करे तो वचनसिद्धि हो जाती है, | ऐसा एक दिन गुरु महाराज ने फरमाया । उनके खुद तो झूठ बोलने का सवाल ही नहीं था। उनकी वचनसिद्धि के कई उदाहरण मेरे पास हैं, पर मैं उनका वर्णन करके चमत्कारों की शृंखला नहीं बनाना चाहता। इन्दौर में एक दिन गुरु महाराज मेरे मकान पधारे। पूछा, सारा घर तो मेरी देखने की इच्छा कतई नहीं है- पर | तेरे इतने बड़े मकान में सामायिक स्वाध्याय का कमरा कहाँ है- यह बता । मैं सकते में आ गया। मकान तो हम बड़े से बड़ा बना लेते हैं, पर सामायिक स्वाध्याय के लिए छोटी सी जगह भी नहीं रखते। हमारा धर्म के प्रति कैसा अनुराग है। उस प्रेरणा से मैं सामायिक-स्वाध्याय के लिये नियत जगह रखता हूँ और किताबें तो सैकड़ों की तादाद में रखता हूँ। बहुत समय पहले की बात है - बाबाजी सुजानमल जी म.सा. गुरु महाराज के साथ भोपालगढ में विराज रहे थे। मेरी उम्र उस समय करीब दस वर्ष की थी। रोज बाबाजी से मांगलिक सुनने एक दफे जाता था। दो दिन गया नहीं । तीसरे दिन गया तो बाबाजी म.सा. ने फरमाया कि दो दिन क्यों नहीं आया? इसलिए आज मांगलिक नहीं सुनाऊँगा। मैं बिना मांगलिक सुने ही जाने लगा। उस समय इतनी बुद्धि तो थी नहीं, गुरु महाराज ने देख लिया, मुझे रोका और बाबाजी म.सा. से निवेदन किया कि अगर आप मांगलिक नहीं फरमायेंगे तो यह आना ही बंद कर देगा। और मुझे तो अपरोक्ष रूप से फरमा ही दिया कि आना बंद मत कर देना। इन्दौर से विहार करके जलगांव की तरफ पधार रहे थे। शाम को बडवाह रुकना था। बडवाह ३ किलोमीटर रह गया था। सूर्यास्त होने में थोड़ी ही देर थी। पास में गेस्ट हाउस था। मैंने गेस्ट हाउस के चौकीदार से बात करके
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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