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महिमाशाली गुरु महाराज
. श्री भंवरलाल बाफना आजकल चमत्कारों को एनलार्ज (बढा-चढ़ाकर) करके श्रद्धा बटोरी जाती है, जो क्षणिक व अस्थायी होती है। गुरु महाराज के चमत्कारों को, जिनका मैं प्रत्यक्ष साक्षी हूँ, लिखकर मैं न तो श्रद्धा बटोरना चाहता हूँ, न ऐसी प्रेरणा ही देना चाहता हूँ। उनका स्वयं का अप्रमादी दैनन्दिन जीवन व शरीर का अणु-अणु एवं रोम-रोम श्रद्धा वाला था। मुझे इंदौर व भोपालगढ के दो चातुर्मासों में पांच-पांच मास तक निकट सान्निध्य एवं सम्पर्क में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उस अवधि में मैंने स्वयं कई अद्भुत व अविस्मरणीय प्रसंग देखे, पर मैं उनका वर्णन नहीं करके उस महामानव की कुछ अद्भुत विशेषताएँ लिखने का प्रयास कर रहा हूँ। ___उनकी गुणगाथा कहाँ से शुरू करूँ और कहां उसका अंत करूँ (अंत तो है ही नहीं) समझ नहीं पाता। फिर भी जैसे-जैसे स्मृति में आ रहा है, लिखने की चेष्टा कर रहा हूँ।
इंदौर चातुर्मास के स्वीकृत होने से शुरू करूँगा । सन् १९७७ में पालासणी में गुरु महाराज ने फरमाया था कि अगला चातुर्मास मारवाड़ में नहीं करने का ध्यान है। मेरे दादाजी उस समय आगरा विराजते थे। उनको जब यह बात ज्ञात हुई तो उनका फोन आगरा से मेरे पास इंदौर आया कि भंवरलाल ! अगर तेरी दृढ़ श्रद्धा हो और आत्म-विश्वास हो तो चातुर्मास का लाभ तुझे मिल सकता है। इंदौर चातुर्मास कराना सहज नहीं था जिसका मुख्य कारण लाउडस्पीकर व भोजन का टिकट मुख्य अड़चनें थी। गुरुदेव के भक्त बादलचंदजी मेहता एवं मेरे सहयोगी बस्तीमलजी चोरडिया से बातचीत की। हम तीनों उस समय के इंदौर संघ के अध्यक्ष श्री सुगनमलजी सा. भंडारी व मानद् मंत्री श्री फकीरचंदजी मेहता से चातुर्मास की चर्चा के लिये गये। मैं आभारी हूँ उन दोनों का कि इन्दौर में लाउडस्पीकर एवं भोजन टिकट की उलझन के बावजूद हमारी भावना समझकर बैठक बुलाने की व्यवस्था की। बैठक में काफी विरोध था, परन्तु एक तो भंडारी सा. का व्यक्तित्व और गुरु महाराज के दर्शन व प्रवचन-श्रवण-लालसा ने उनको सोचने पर मजबूर कर दिया और सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित करके एक विनति पत्र लिखा गया। उसमें गुरु महाराज की समाचारी के अनुसार ही चातुर्मास की विनति की गयी। संघ अध्यक्ष, मंत्री महोदय व अन्य लोगों के हस्ताक्षरों सहित यह विनति पत्र लिखा गया।
गुरु महाराज उस समय मेड़तासिटी विराज रहे थे। हम लोग फकीरचंद जी मेहता व सागरमल जी बेताला को लेकर विनति के लिये मेड़तासिटी गये। वंदन करके बैठे और चातुर्मास की बात चलाई। इतने में श्री हीरामुनजी (वर्तमान आचार्य श्री) ने फरमाया कि विनति तो लेकर आये हैं, पर हमारी समाचारी के विषय में तैयार हैं या नहीं। हमने तुरन्त विनति पत्र जिसमें संघ अध्यक्ष व मंत्री के हस्ताक्षर थे, सेवा में प्रस्तुत किया। फकीरचंदजी से काफी विचारविमर्श के बाद गुरु महाराज ने ध्यान में रखने का आश्वासन सा दिया।
इससे मुझे संतुष्टि नहीं थी, इसलिए मैं बारबार विनति के लिये गया। गुरु महाराज ने मेरी कितनी कड़ी परीक्षा ली, यह लिखने का विषय नहीं है। अन्त में एक दिन मैं और गुरु महाराज अकेले बैठे थे तो मैंने अश्रुपूरित हृदय से विनति की कि दादा लोगों को भोपालगढ व आगरा में चातुर्मास के व दीक्षा के लाभ दिये तो क्या पोता बिना लाभ के रहेगा। करुणा के सागर ऐसा तो आप कर नहीं सकते। अब निर्णय आपके हाथ में है।