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तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड
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हुआ था । भारतीय इतिहास-लेखन में जैन स्रोत उपेक्षित न रहे, इसके लिए वे प्रेरणा देते थे । उन्हीं के सान्निध्य में सन् १९६५ के बालोतरा चातुर्मास में जैन धर्म के इतिहास लेखन की योजना बनी। उस समय जैन आगमज्ञ विद्वान् पं. दलसुख भाई मालवणिया विशेष रूप से बालोतरा पधारे थे। मैं भी उस अवसर पर उपस्थित था। जैन इतिहास | लेखन की सामान्य रूपरेखा भी बनी और यह आवश्यक माना गया कि राजस्थान और गुजरात के ज्ञान भण्डारों का सर्वेक्षण किया जाए और दक्षिण भारत की भाषाओं में जो जैन सामग्री विद्यमान है, उसका आकलन किया जाए । इतिहास की शोध सामग्री के आकलन की दृष्टि को प्रधान रखकर ही सम्भवतः आचार्य श्री ने बालोतरा के बाद अहमदाबाद चातुर्मास किया और सामग्री संकलित करने की प्रेरणा दी । इतिहास के द्वितीय और तृतीय भाग के लिए आचार्य श्री ने कर्नाटक और तमिलनाडु की यात्राएँ कीं और कई नये तथ्य उद्घाटित किये । स्थानकवासी परम्परा के इतिहास-लेखन की आधारभूत सामग्री 'पट्टावली प्रबन्ध संग्रह' के रूप में संकलित की । इसका दूसरा भाग भी आचार्य श्री के निर्देशन में तैयार किया गया, जिसके प्रकाशन की प्रतीक्षा है ।
आचार्य श्री संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी आदि भाषाओं के अधिकृत विद्वान् थे । उन्होने 'दशवैकालिक', 'उत्तराध्ययन सूत्र', 'नन्दी सूत्र', 'अन्तगडदशांग', 'प्रश्न व्याकरण' आदि शास्त्रों की सटिप्पण | व्याख्याएँ प्रस्तुत कीं । आत्म जागृति मूलक कई पद लिखे, जो अत्यन्त प्रेरणादायी और जीवनस्पर्शी हैं । भगवान् महावीर से चली आ रही जैन शासन परम्परा को 'जैन आचार्य चरितावली' के रूप में पद्यबद्ध किया। आचार्यश्री | का प्रवचन साहित्य हिन्दी के धार्मिक, दार्शनिक साहित्य की अमूल्य धरोहर है । ये प्रवचन सामान्य विचार नहीं हैं । | इनमें तपोनिष्ठ साधक की अनुभूतियाँ और उच्च कोटि के आध्यात्मिक सन्त की आचरणशीलता अभिव्यंजित हुई | है । प्राकृत, संस्कृत के प्रकाण्ड पंडित होते हुए भी आचार्य श्री के प्रवचन कभी भी उनके पाण्डित्य से बोझिल नहीं हुए। उनमें उनकी संयम - साधना का माधुर्य और ज्ञान महोदधि के गांभीर्य का अद्भुत संगम होता । छोटे-छोटे | वाक्यों में लोक और शास्त्र के अनुभव को वे इस प्रकार बांटते थे कि श्रोता का हृदय - पात्र बोधामृत से लबालब भर | जाता। उनकी प्रवचन - प्रभा से हजारों भक्तजनों का अज्ञानांधकार मिटा है, निराश मन में आशा का संचार हुआ है, थकान मुस्कान में बदली है और आग में अनुराग का नन्दन वन महक उठा है।
मेरा किसी न किसी रूप में आचार्य श्री से लगभग ४० वर्षों का सम्पर्क सम्बन्ध रहा । आचार्य श्री के प्रेरक व्यक्तित्व और मंगल आशीर्वाद ने मेरे जीवन-निर्माण में और उसे आध्यात्मिक स्फुरण देने में आधारभूत कार्य किया है । उनके सत्संग का ही प्रभाव है कि मेरे लेखन और चिन्तन की दिशा बदली। यदि आचार्य श्री का सान्निध्य न मिलता तो मैं दिशाहीन भटकता रहता । जीवन - समुद्र की ऊपरी सतह पर ही लक्ष्यहीन लहरों की भांति उठता-गिरता और सांसारिक प्रपचों के किनारों से टकराता रहता, झाग बटोरता रहता । आचार्य ने ही मुझे जीवन - समुद्र की गहराई का, उसकी मर्यादा और प्रशान्तता का बोध कराया। मुझे ही क्या मेरे जैसे सैकड़ों-हजारों लोगों को जीवन का रहस्य बताया, सम्यक् जीवन जीने की कला सिखाई । आज समाज में ज्ञान के प्रति जो निष्ठा दिखाई देती है, उसके मूल में आचार्य श्री का जीवन, व्यक्तित्व और कृतित्व समाहित है ।
एम.ए करने के बाद मेरी सर्वप्रथम नियुक्ति गवर्नमेन्ट कॉलेज, बून्दी में हिन्दी प्राध्यापक के पद पर हुई । मैं वहाँ १३ जुलाई, १९६२ तक रहा। संभवत १९६०-६१ की बात होगी। आचार्य श्री अपने शिष्यों के साथ पदविहार मैं उनके दर्शनार्थ सेवा में पहुँचा । आचार्य श्री मुझे वहाँ करते हुए कोटा से बून्दी पधारे। जब मुझे ज्ञात हुआ | देखकर बड़े प्रमुदित हुए और कहा - "तुम्हें अपनी रुचि के अनुसार कार्य-क्षेत्र मिल गया है। लेखन सतत जारी रखो,