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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ५४४ जैन शास्त्रों का अध्ययन भी करो। और सहज भाव से यह भी कहा-“यदि तुम्हारी नियुक्ति जयपुर हो जाए तो समाज को ज्यादा लाभ हो सकता है।” मैंने कहा-ऐसा संभव नहीं लगता। कुछ दिन रहकर आचार्य श्री वहाँ से विहार कर गये । इधर मेरा पी-एच.डी. का कार्य भी पूरा हो गया और संयोग से राज्य सरकार के निर्णयानुसार राजस्थान विश्वविद्यालय को नया रूप दिया जाना तय हुआ। विभिन्न कॉलेजों से विभिन्न विषयों के प्राध्यापकों से राजस्थान विश्वविद्यालय में आने के लिए विकल्प (Option) मांगे गये। मेरा अध्यापन अनुभव यद्यपि कम था, पर तत्कालीन प्रिंसिपल श्री एम. एल. गर्ग सा. के यह कहने पर कि तुम्हारा एकेडेमिक कैरियर बहुत अच्छा है, अत: तुम विकल्प दे दो और दैवयोग से राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर के लिए शैक्षिणक योग्यता के आधार पर बिना साक्षात्कार ही मेरा चयन हो गया और मैं १४ जुलाई, १९६२ को जयपुर आ गया । आज सोचता हूँ तो लगता है कि आचार्य श्री कितने भविष्यद्रष्टा थे, वचनसिद्ध थे। मुझे स्वप्न में भी कल्पना नहीं थी कि मैं इतने सहज रूप से जयपुर आ जाऊँगा। _आचार्य श्री के १९९० के पाली चातुर्मास में 'युवापीढ़ी और अहिंसा' विषयक संगोष्ठी जैन विद्वत् परिषद् के तत्त्वावधान में आयोजित की गई थी। आचार्य श्री ने विद्वानों को विशेष संदेश देते हुए कहा कि वे अपने ज्ञान को
शस्त्र के साथ नहीं, शास्त्र के साथ जोड़ें, अपनी विद्वत्ता को कषाय-वृद्धि में नहीं, जीवन-शुद्धि में लगायें और ध्यान रखें कि संयम के बिना अहिंसा लंगड़ी है।
पाली चातुर्मास के बाद आचार्य श्री का स्वास्थ्य अनुकूल नहीं रहा और पाली में कुछ समय उन्हें रुकना पड़ा। २६ दिसम्बर को मैंने पाली में आचार्य श्री के दर्शन किये तब लगभग डेढ़-दो घण्टे तक साहित्य और साधना विषयक विभिन्न बिन्दुओं पर बातचीत हुई। आचार्य श्री ने मुझे सचेत किया कि तुम भारत में बहुत घूम चुके, अब ज्यादा भागदौड़ न करो, स्थिर जमकर काम करो, ध्यान पद्धति को निश्चित रूप दो, प्राकृत-संस्कृत भाषा एवं साहित्य की जो अनमोल विरासत है, उसे संभालो और नई पीढ़ी को इस ओर प्रेरित करो, आकर्षित करो।
इसी प्रसंग में उन्होंने 'जिनवाणी' के प्रति प्रमोदभाव व्यक्त किया और संकेत दिया कि 'स्वाध्याय-शिक्षा' प्राकृत भाषा की मुखपत्रिका बने । प्राकृत-लेखन की ओर आज विद्वानों की रुचि नहीं है। इस पत्रिका के माध्यम से प्राकृत संस्कृत लेखन को बल मिले तो श्रेयस्कर होगा। विदेशों में श्रमण संस्कृति के शुद्ध स्वरूप को प्रस्तुत करने के लिए स्वाध्यायियों को विशेष रूप से तैयार करने की बात भी उन्होंने कही। यह भी संकेत दिया कि विदेशों में विभिन्न क्षेत्रों में हमारे समाज के लोग अच्छी स्थिति में हैं। यदि उनको संगठित कर कोई योजना बनाई जावे तो वहाँ श्रमण संस्कृति के प्रचार-प्रसार का अच्छा वातावरण बन सकता है। आर्थिक दृष्टि से तो वे लोग आशा से अधिक सम्पन्न हो गये हैं, पर धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से विपन्न न रहें, इस ओर ध्यान देना विद्वत् परिषद् का कर्तव्य है। काश ! आचार्य श्री के इन विचारों को मूर्त रूप देने के लिए समाज कुछ कर सके।
आचार्य श्री जब निमाज पधारे, मैं सपत्नीक महावीर जयन्ती पर उनके दर्शनार्थ पहुँचा । तब आचार्य श्री मौन में थे। पर हमें लगभग पौन घण्टे तक आचार्य श्री के सान्निध्य में बैठने का, अपनी बात कहने का, मौन संकेतों द्वारा आचार्य श्री से उनका समाधान पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। श्री गौतम मुनिजी ने इस वार्तालाप में हमें विशेष सहयोग दिया। जब हम चलने लगे, तब आचार्य श्री ने पाट से खड़े होकर मौन मांगलिक प्रदान की। यह एक प्रकार से आचार्य श्री से हमारी अन्तिम भेटवार्ता थी।
उसके बाद १४ अप्रैल को हम दर्शनार्थ पहुँचे, तब आचार्य श्री ने संथारा ग्रहण कर लिया था। दर्शनार्थियों