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________________ तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड ५३३ (५) सन् १९७१ में बी. काम. उत्तीर्ण करने के बाद मैं भगवन्त के दर्शन करने जयपुर पहुंचा। मैं सी. ए करने हेतु बम्बई जाने की सोच रहा था । आपने फरमाया कि जोधपुर रहने में सी. ए भी हो जायेगी व संघ-सेवा भी हो जायेगी। इस एक वाक्य से ही मुझे आपका आशीर्वाद भी मिल गया था व मेरे जीवन का कार्यक्षेत्र व लक्ष्य भी निर्धारित हो गया, साथ ही संघ-सेवा का सुअवसर भी प्राप्त हो गया। बहुत कम पढ़ाई करते हुये भी मैं प्रथम प्रयास में ही सी. ए, बना, यह आपके कृपा-आशीर्वाद का ही तो परिणाम था। (६) संगठन व जैन एकता के बारे में गुरुदेव अक्सर दो उदाहरण फरमाते - “देश में वायु-सेना, थल-सेना और जल-सेना अलग-अलग हैं, पर सब का एक ही लक्ष्य है। राष्ट्र की सुरक्षा व कभी भी देश खतरे में हो तो सब सेनाएँ एक होकर सुरक्षा के उपाय करेंगी। ऐसे ही विभिन्न सम्प्रदायों की अलग-अलग व्यवस्था होकर भी सब का एक ही लक्ष्य जिन-शासन की रक्षा हो तथा जब भी जैनत्व का सवाल हो तो सभी सम्प्रदाय जिन-शासन के झंडे तले एक होकर एक ही लक्ष्य से कार्य करें।" नारंगी ऊपर से एक प्रतीत होती है, पर छिलका हटते ही अलग-अलग फांके बिखर जाती हैं। तरबूज पर ऊपर से धारियां नजर आती हैं, पर छिलके के भीतर तरबूज एक है। जैन एकता नारंगी की तरह न होकर, तरबूज की तरह हो। तरबूज की भांति ऊपरी व्यवस्थाएँ भिन्न-भिन्न भले हों, पर अन्तहर्दय से सबका एक ही लक्ष्य जिन-शासन की उन्नति व सुरक्षा हो। (७) परम पूज्य गुरुवर्य का विहार सोजत की ओर होने की चर्चा थी, मैं पूज्यपाद के चरणों में बैठा था। सहज ही मैंने बालचेष्टा भरा प्रश्न कर लिया-"भगवन् ! सोजत में तो अपने घर नहीं हैं । तत्काल उन महापुरुष का उत्तर था - “जब तक मेरे ज्ञान, दर्शन, चारित्र निर्मल हैं तब तक सभी क्षेत्र , सभी घर हमारे अपने ही हैं और जिस दिन | इस चदरिया में कोई भी दाग लग गया , तो तुम भी मेरे नहीं रहोगे।” ज्ञान, दर्शन, चारित्र की निर्मलता के प्रति कितनी सजगता, संयम-बल पर कैसा विश्वास व अंतर्हदय में कैसी | साम्प्रदायिक निरपेक्षता । आज भी उन महापुरुष के चरणों में बिताये गये क्षण हृदय को श्रद्धा, भक्ति व उदारता से सराबोर कर देते हैं। (८) मैं संघ - महामंत्री का दायित्व निर्वहन कर रहा था। तब पूज्यपाद के नाम के पहले १००८ लगाया जाय या १०८, बड़ी ऊहापोह चल रही थी। भक्तगण अपने परम आस्था केन्द्र, अनुपम योगी, युग निर्माता गुरुवर्य के नाम के आगे १००८ से कम लगाने को कतई सहमत नहीं थे। भक्तों की ऊहापोह व प्रबल आग्रह को मैंने चरण सरोजों में निवेदन किया। भगवन्त का फरमाना था- “हमारे बचपन में संतों के नाम के आगे ६ लगाया जाता था।” मैं कुछ समझ न पाया। कुछ पूछं, उसके पूर्व ही भगवन्त ने पूछा 'समझे ?' 'नहीं भगवन् ।' भगवन्त का समाधान था - “६ का मतलब होता है षट्काय प्रतिपाल । संयम ग्रहण के साथ ही षट्काय के जीवों के रक्षक होने से संतों के साथ यह विशेषण जुड़ जाता है। क्या तुम इससे भी बड़ा कोई पद संतों को दे सकते हो?” नतमस्तक था मेरा सिर, श्रद्धा से उत्फुल्ल था मेरा हृदय, कैसी निरभिमानता ! अतुल ज्ञान सम्पदा के धनी, | निरतिचार संयम के पालक, जिन प्रवचन के प्रति प्रगाढ आस्था के धनी उन महापुरुष को मानो अभिमान, प्रशंसा की चाह, उपाधि आकर्षण आदि छू ही न पाये हों । जिन्हें नाम व प्रशंसा की चाह नहीं होती है, वे ही पंच परमेष्ठी )
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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