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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ५३४ भगवंत सदा सदा के लिये वंदनीय, अभिवंदनीय व प्रतिपल स्मरणीय बन जाते हैं। (९) जयपुर में अक्षय तृतीया का प्रसंग था, मैं भी दर्शनार्थ गया हुआ था। कुछ दिन पूर्व ही पूज्य श्रमण श्रेष्ठ पं. रत्न श्री समर्थमलजी म.सा. एवं उनके प्रमुख शिष्य श्री प्रकाश मुनि जी म.सा. (सम्प्रति श्रुतधर) भोपालगढ़ पधारे थे। मेरी जन्म भूमि थी, मैं भी कुछ दिन वहाँ रुका व उनकी सेवा का अवसर प्राप्त किया। सायंकाल कुछ प्रश्नचर्चा में भी भाग लेता। जयपुर में पूज्यपाद ने श्रमण-श्रेष्ठ की सेवा का लाभ लेने के बारे में पृच्छा की तो हमारे मुँह से सहज ही निकला कि पं. रत्न श्री प्रकाश मुनि जी जिज्ञासुओं के प्रश्नों का समाधान करते समय पूज्य श्रमण श्रेष्ठ के प्रति श्रद्धा, विनय व समर्पण युक्त समाधान देते हैं। इस प्रशंसात्मक बात को सुनकर मानो 'गुणिषु प्रमोदं' की उक्ति चरितार्थ हो उठी, पूज्यपाद का मुख कमल खिल गया और बिना एक क्षण का समय लिये उनके मुख से उद्गार व्यक्त हुए– “ऐसे | सन्तों से ही जिन शासन की शोभा है।" गुणिजनों के प्रति प्रमोदभाव गुरुदेव की प्रमुखतम विशेषता थी-अहह महतां नि:सीमानश्चरि विभूतयः । महान् | पुरुषों के चरित्र की सीमा नहीं । जहां एक ओर पर प्रशंसा सुन लोग चुप्पी साध लेते हैं अथवा विचलित हो जाते हैं, वहां गुरुदेव की दृष्टि गुणों पर रहती थी आप सद्गुणों की स्वयं प्रशंसा करते थे, प्रमोद व्यक्त करते थे एवं अनुसरण की प्रेरणा करते थे। उसी समय मैंने भी चरणों में पृच्छा की कि इस वर्ष जोधपुर में श्रद्धेय मरुधर केसरी जी म.सा. का चातुर्मास हो रहा है, चातुर्मास में आने जाने में हमारी क्या सोच होनी चाहिये ? तपाक से पूज्य गुरुदेव ने फरमाया - यह तो आपको स्वयं अपने विवेक से सोचना है, इसमें हमसे पूछने का प्रश्न ही कहाँ ? ____ अपने भक्त जनों पर कैसा अनूठा विश्वास कि उन्हें कभी भी साम्प्रदायिक अंधता की जन्म यूंटी नहीं |पिलाई । उन्हें हमेशा स्वनिर्णय के लिये विवेक दृष्टि प्रदान की। ___ (१०) सन् १९९० में पूज्यपाद जोधपुर के विभिन्न उपनगरों को पावन करते हुये पावटा भांडावत सा. के बंगले में विराज रहे थे । एक दिन अपराह्न में मैं भी अपनी धर्म-पत्नी के साथ दर्शनार्थ पहुँचा । हम दोनों ने एक साथ वंदन किया। शादी के पश्चात् भावी में गुरुधारणा करने के बाद क्वचित् यह प्रथम अवसर था जब मैंने सपत्नीक वंदन किया। (संकोचवश हम दोनों में कभी एक साथ खड़े होकर वंदन नहीं किया।) हमारे खड़े होते ही कृपानाथ मेरी धर्मपत्नी को संबोधित करते हुए बोले “आप शादी करके भावी आये थे, तब मैंने एक बात कही थी, आज एक बात और कह रहा हूँ ।” मैं विस्मय विमुग्ध देखता रह गया। १७-१८ वर्ष पूर्व की घटना का कैसा | अद्भुत स्मरण व उन महामना को छोटे से छोटे भक्त का भी कितना खयाल । हृदय सहज श्रद्धा से अभिभूत था तो मस्तक झुका हुआ। (११) इसी क्रम में पतितपावन शास्त्रीनगर पधारे । ए सेक्टर स्थित स्थानक में विराजित थे। संत प्रवचन फरमा रहे थे, मैं भी प्रवचन में बैठा था। मैंने शास्त्रीनगर में मकान ले रखा था, मकान में रहवास प्रारंभ नहीं किया था। अकस्मात् भगवन्त ने स्मरण किया व श्रद्धेय गौतममुनिजी से पूछा - "ज्ञानेन्द्र आया है?" उन्होंने मुझे संकेत किया। मैं सेवा में पहुँचा। पूछा - "अपना मकान यहाँ से कितनी दूर है?” मैंने कहा - "भगवन् लगभग पौन किलोमीटर।" "मुझे कुछ न कहकर गौतम मुनि सा. को फरमाया - “संतों से कहो अपना कल का कार्यक्रम वहाँ।” दूसरे दिन महाभाग विहार कर पधारे। घर में प्रवेश द्वार में पाँव रखते ही मुझे फरमाया - “नियम ! ऐसा न हो कि लोग कहें
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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