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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
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| के अलावा जो भी पैसा आता उसे मैं ज्ञानखाते या दानखाते में डाल देता था। वह क्रम आज भी चलता है । बचे |हुए पैसे का उपयोग मैंने मानवता और समाज की सेवा में करना श्रेयस्कर समझा । रत्न स्वाध्याय भवन, कुशल भूधर | ट्रस्ट आदि का निर्माण इसलिए आसानी से हो सका। जो भी उनके सम्पर्क में आता वह उनका ही होकर रह जाता, कोई उनको भूलता नहीं था, न जाने क्या जादू था उनमें। बच्चों से उनको बहुत प्रेम था। बच्चे भी उनसे प्रभावित | रहते थे।
गुरुदेव जलगाँव से दूसरा चातुर्मास पूर्ण करके इन्दौर की ओर आ रहे थे, तब मैं विहार में साथ रहा। विहार में बड़ा आनन्द रहा। उस समय एक बार आचार्यश्री की माला खो गई । वे खोजने भी गए परन्तु मिली नहीं । मेरे | पास माला थी। मैंने कहा, 'गुरुदेव, यह माला ले लीजिए।' उन्होंने पूछा, 'यह कितने रुपये की है ?' मैंने सही-सही मूल्य बताते हुए कहा, 'अन्नदाता, केवल तीन सौ रुपये की है।' गुरुदेव ने फरमाया, 'इतनी महंगी माला संतों को शोभा नहीं देती।' उन्होंने वह माला नहीं ली ।.
आचार्यश्री देवता पुरुष थे। जलगाँव से इन्दौर होते हुए राजस्थान की ओर पधारे। मैं उनको तीनों समय | वन्दना करता था । मैं सोता हूँ या जागता हूँ तब उन्हें आज भी वन्दना करता हूँ। मैंने सांप को बचाने की घटना भी | देखी है। कुछ लोग लाठी से साँप को मार रहे थे । गुरुदेव बोले, 'क्यों मारते हो ? इसे छोड़ दो ।' वे लोग बोले, 'बचाना ही है तो ले जाओ इसे अपनी झोली में ।' गुरुदेव उस सर्प को झोली में लेकर चल दिए । लगभग दो | किलोमीटर आगे ले जाकर उसे छोड़ दिया। वे करुणाशील भी थे और निडर भी ।
गुरुदेव के सान्निध्य में रहकर मैंने बहुत कुछ पाया। मुझे इस बात की खुशी है कि मैंने गुरुदेव का कहा हुआ | टाला नहीं। यही बात मेरे जीवन-निर्माण में काम आई। अब तो गुरुदेव की यादें ही शेष रह गई हैं।
(उल्लेखनीय है कि संघ - संरक्षक सुश्रावक श्री इन्दरचन्द जी सा. हीरावत से मार्च ९८ में मुम्बई में उनके घर पर जो बातचीत हुई थी, उसी के अंश यहाँ प्रकाशित किए गए हैं। इसके पश्चात् सन् १९९९ में श्रीमान् हीरावत सा. का देहावसान हो गया। हीरावत सा. एक उदारमना समाजसेवी श्रावकरल थे। गुरुदेव के अनन्य भक्त हीरावत सा. की भी अब स्मृतियाँ शेष रह गई हैं । - सम्पादक) - १३०१, पंचरत्ना बिल्डिंग, आपेरा हाउस, मुम्बई ४००००४