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________________ कृपालु आत्मार्थी गुरुदेव • श्री इन्दरचन्ट हीरावत परम श्रद्धेय आचार्य गुरुदेव अनन्त कृपालु थे। उनकी मेरे पर बहुत कृपा थी। उनके सान्निध्य में बैठकर मैं अपने को धन्य मानता था । वे मेरे जीवन के निर्माता रहे। मैं क्या कहूँ, गुरुदेव के बारे में, उनकी जब भी याद आती | है, तो आँखों में प्रमोद के आँसू छलक आते हैं। एक बार मेरा मन हुआ कि दूसरे लोग अठाई और मासखमण तक तप कर लेते हैं और मैं तो एक उपवास में ही ढीला हो जाता हूँ। मैंने गुरुदेव से भी यह बात कही। उन्होंने कहा, 'तेरा मन है क्या अठाई करने का?' मैंने कहा, 'हाँ, गुरुदेव' गुरुदेव ने कहा कि तुम उपासरे में रहकर ही उपवास करो। मैंने गुरुदेव से उपवास व्रत लिया और वहाँ ही पौषध करके रात्रि विश्राम किया। पाँच उपवास होने तक तो मुझे पता ही नहीं चला कि मैंने उपवास किया है, सहज में ही अठाई तप भी हो गया। गुरुदेव ने सचमुच में मेरे जीवन का निर्माण किया। मेरे में कई गलत शौक थे। वे सब गुरुदेव की संगति, समझाइश और उनके प्रति निष्ठा से छूटते चले गए। मैंने उनसे कई तरह के नियम लिए। आज भी मैं उनका पूरी दृढता से पालन करता हूँ, उसमें कभी ढिलाई नहीं आने दी। यही मेरे जीवन निर्माण का सम्बल बना। सामायिक रोजाना करता हूँ। सामायिक और स्वाध्याय का गुरुदेव ने ऐसा शंखनाद किया है कि पहले जहाँ व्याख्यान के समय रुपये में चार आना लोग सामायिक में बैठते थे वहाँ अब बारह आना लोग सामायिक में बैठने लगे हैं। ___मैंने बचपन से ही उन्हें देखा। दीक्षा के बाद वे अपना अधिकतर समय पढ़ाई में ही लगाते थे। इधर-उधर | ध्यान नहीं देते थे। इससे उनकी योग्यता बढ़ती चली गई। मैंने गुरुदेव में यह भी विशेषता देखी कि यदि किसी ने अन्य गुरु से आम्नाय ले रखी है तो वे उसे गुरु आम्नाय नहीं दिलाते थे। कोई उनसे गुरु आम्नाय दिलाने की बात कहता तो भी वे स्वयं उसे ना कर देते थे। उनका कहना था कि धर्म के मार्ग पर चलने के लिए किसी एक को गुरु मानना पर्याप्त है। मैंने बहुत साधुओं को देखा, किन्तु गुरुदेव में यह अनोखी विशेषता देखी। मुझे दस बारह वर्षों तक जयपुर समाज का अध्यक्ष रहने का सौभाग्य मिला। किन्तु मैंने ऐसे आचार्य नहीं देखे जो स्वभाव से सरल और पक्के आत्मार्थी हो । गुरुदेव में मैंने यह पाया कि वे स्वभाव से सरल और इतने ऊँचे आत्मार्थी थे कि उसका अन्दाजा लगाना हमारे जैसों के लिए मुश्किल है। आचार्यश्री के बारे में लोग ऐसा मानते थे कि रात्रि में दो बजे से चार बजे के बीच कई बार चमका सा दिखाई देता था। हम पौषध करते थे, तब हमने भी वह चमका देखा। आचार्यश्री में दिव्यशक्ति थी। एक बार मैं दर्शन करने गया तब गुरुदेव प्रतिदिन की भांति ध्यान में विराजमान थे। मैं संतों के दर्शन कर || आचार्य गुरुदेव के समीप जाकर बैठ गया। ध्यान खुलने के पश्चात् उन्होंने सहज भाव से मुझे परिग्रह की मर्यादा गई। मर्यादा करा दी । मैं उस समय कलकत्ता में काम करता था। मैंने परिग्रह की मर्यादा की. जो शीघ्र ही पर
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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