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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं मन्द होना परमावश्यक है। जिसका क्रोध मन्द नहीं हुआ, लोभ मन्द नहीं हुआ, वह अणुव्रतों और शिक्षाव्रतों का पूरी तरह पालन नहीं कर सकेगा। जिसके वाणी का संयम नहीं होगा, वह सत्य-व्रत का पूरी तरह पालन नहीं कर सकेगा। इसलिये अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन मूलव्रतों की रक्षा के लिये क्षमा,शम,दम की । अनिवार्य रूप से परिपालना के लिये तन, मन और वाणी पर नियंत्रण होना नितान्त आवश्यक है। तपस्या के समय में लोभ-लालच की मन में लहर न आने दें। जरा स्वजन-सम्बन्धी और ज्ञाति-जनों को समाचार हो जायेंगे, ससुराल वालों को समाचार हो जायेंगे, मेरे दोस्त आ जायेंगे; बड़े नगर में पारणा करूँगा तो नगर वाले अच्छा बहुमान कर देंगे। यदि यह भावना है कि नगर में बड़े संघ के सामने पूर होगा तो अभिनन्दन होगा,
कीर्ति होगी; इस भावना से कोई तप का पूर बड़ी जगह करता है तो वह संयम नहीं, असंयम होगा। . संत-सेवा/सत्संग
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गृहस्थ का त्यागी वर्ग के प्रति धर्म-राग, प्रेम या अनुराग जितना अधिक होगा, उतना ही आरम्भ परिग्रह से गृहस्थ | को दर हटा सकेगा और शान्ति के नजदीक रख सकेगा। किन्तु साधु का आपसे ज्यादा राग हो जाए, ज्यादा निकट बढ़ने लगे, तो उचित नहीं होगा। • सन्त का श्रावक-श्राविका के साथ अनुराग सीमातीत होगा तो सन्त की संयम मर्यादा को वह गौण कर देगा।
परन्तु श्रावक की सन्त के प्रति अनुराग की सीमा नहीं होनी चाहिए। वह असीम होना चाहिए। • धर्माचार्य त्यागी होने से गृहस्थ की सेवाओं को स्वीकार नहीं करते। जिन वचनों को जीवन में उतारना और सद्विचारों का प्रसार करना ही उनकी सही सेवा है। शरीर से अयतना की प्रवृत्ति नहीं करना, वाणी से हित, मित
और पथ्य बोलना एवं मन से शुभविचार रखना उनकी सेवा है। जीवन-निर्माण की दिशा में मात्र सत्पुरुषों के गुणगान से ही आत्मा लाभ प्राप्त नहीं कर पाता, इसके लिए करणी भी आवश्यक है और गुणीजनों को भी केवल अपनी प्रशंसा भर से वह प्रमोद प्राप्त नहीं होता, जो कि उनकी
कथनी को करनी का रूप देने से होता है। • महाराज श्रेणिक व्रत ग्रहण नहीं कर सका, फिर भी सत्संग से उसको सुदृष्टि प्राप्त हो गई। • भक्त यह नहीं सोचते कि त्यागियों के पास, साधकों के पास, मुमुक्षुओं के पास धन-सम्पदा जैसी वस्तुएँ देने को
कुछ नहीं है तो उनके नजदीक जाकर क्या करें। ऐसा खयाल उन व्यक्तियों को आयेगा जो त्याग और त्यागी
की महिमा नहीं जानते। • संत यद्यपि छद्मस्थ होते हैं; तीर्थंकरों की तरह पूर्ण नहीं होते, तथापि वे संसार को अखूट निधि देते हैं। लेकिन
उनका देना मूकदान है। • एक समझदार और विद्वान् पुरुष जब मूर्ख के साथ अपना दिमाग लगाता है तो उसकी विद्वत्ता मुरझाती है,
विकसित नहीं होती और जब वह सत्संग में बैठ कर विद्वानों के साथ संवाद करता है तो उसकी विद्वत्ता का विकास होता है। उक्ति प्रसिद्ध है - वादे-वादे जायते तत्त्वबोधः । ज्ञानी पुरुषों के साथ तत्त्वविमर्श करने से ज्ञान की वृद्धि होती है। उनके साथ किया हुआ विचार-विमर्श संवाद कहलाता है और जब मूों के साथ माथा रगड़ा जाता है तो वह विवाद का रूप धारण कर लेता है और शक्ति का वृथा क्षय होता है। कलह, क्रोध और हिंसा की वृद्धि होती है। तकरार बढ़ती है और स्वयं की शान्ति भी