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द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
आज्ञा-पालन करवाने में सहयोगी होते हैं ।
• सामान्य जनों में औरतों से अधिक बातें करने वाला या पैसा रखने वाला संत तो आपको अपराधी रूप में नजर आता है, पर आज्ञा का उल्लंघन करने वाला उस तरह से अपराधी के रूप में नजर नहीं आता। आज्ञा का विराधक कम दोषी है ऐसा नहीं है, आज्ञा सब व्रतों का मूलाधार है।
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हिंसा, चोरी, कुशील की तरह आज्ञा उल्लंघन या आज्ञा भंग करना भी बड़ा अपराध माना गया है।
• संघ में कोई साधु गलती कर जाय तो संघाधिकारी आचार्य यथोचित प्रायश्चित्त देकर शुद्धि करता है। कभी किसी को अलग भी करना होता है तो यह आचार्य के अधिकार की बात है। श्रावकगण का कर्तव्य आदेश की यथोचित पालना की व्यवस्था करना मात्र है, पर दखल श्रावक के अधिकार की बात नहीं है ।
साधुओं का नियम है- ध्वनिवर्धक यंत्र का प्रयोग न करें, फ्लश का उपयोग न करें, फोटो नहीं खिंचावें । इसी प्रकार संतों के स्थान पर महिलाओं का और सतियों के स्थान पर पुरुषों का असमय में आना जाना या बैठना वर्जित है । इन नियमों का परिपालन तभी होगा, जब श्रावकों का ईमानदारी से सहयोग रहेगा । ■ संयम
वाणी और शरीर के दोषों को काबू कर लेने पर मानसिक दोष धीरे-धीरे नियंत्रण में आ सकते हैं। मन आखिर वाणी और शरीर के माध्यम से ही तो दौड़ लगाता है। यदि काया को वश में कर लेंगे तो मानसिक पाप स्वयं कम हो जाएंगे। कभी किसी के मन में गलत इरादा आया, किन्तु व्यवहार में वाणी से झूठ नहीं बोलने का संकल्प होने के कारण उच्चारण नहीं किया, व्रत में पक्का रहा तो वह मानसिक तरंग धीरे-धीरे विलीन हो जाएगी। इसीलिए बाहर के आचारों का नियंत्रण पहले करने की आवश्यकता बतलाई है।
• भगवान महावीर ने साधक को सूचना दी है कि भोजन उतना ही करना चाहिये जिससे संयम की साधना में बाधा न पहुँचे ; आवश्यकता से अधिक भोजन किया जायेगा तो शरीर में गड़बड़ होगी, मन में अशान्ति होगी, प्रमाद आएगा और साधना यथावत् न हो सकेगी। स्वाध्याय और ध्यान के लिए चित्त को जिस एकाग्रता की आवश्यकता है, वह नहीं रह सकेगी। खाने में संयम रख कर कम खाओगे तो रोग से बचोगे । वचन पर, वाणी पर संयम रखोगे, कम बोलोगे तो राग, द्वेष एवं लड़ाई से बचोगे ।
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• भरपूर युवा वय हो, गृहस्थ जीवन हो, शरीर स्वस्थ हो, सुन्दर रूप हो, फिर भी आदमी अपने आपको वासना बचा ले, यह तभी हो सकता है जबकि वातावरण पवित्र हो । पवित्र वातावरण में जो पला हो और सत्संग के संस्कारों में जिसने वृद्धि पाई हो, वही आगे बढ़ सकता है 1
संसार में हजारों संत जन हैं। वे अर्थ के पीछे नहीं दौड़ते, क्योंकि उन्होंने अपनी कामना को कम कर दिया ।। निर्वाह के लिये उनको दो समय थोड़ा भोजन चाहिये, पानी चाहिये । जहाँ कहीं जगह मिली, कपड़ा डाला और लेट गये। कामना अति स्वल्प है। दस घरों में घूमे, न आपके खाने में व्यवधान पड़ा और न हमारी जरूरत में कमी आई। आपके घर में मेहमान बन कर चले गये तो आप कहेंगे कि महाराज जरा ठहरो, भोजन | बन रहा है। लेकिन संत जन एक घर से नहीं लेकर थोड़ा-थोड़ा अनेक घरों से लेते हैं, इसलिये वे एक घर पर भार नहीं बनते ।
• गृहस्थ के अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि मूल अणुव्रत हैं, इनके लिये माया, क्रोध, मद, मोह का