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________________ द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड ४५५ - - समाप्त हो जाती है। - - . संस्कार - - • जिस प्रकार चतुर माली अपने बगीचे में सफाई करते हुए पेड़-पौधों को समय पर पानी पिलाता है तथा || पशु-पक्षियों द्वारा उन्हें नष्ट किये जाने से बचाता है, उसी प्रकार माता-पिता को अपने बच्चों की देखभाल भली || प्रकार से करनी चाहिए। शैशवकाल में बालक में समस्त मानवीय सद्गुणों के अंकुर विद्यमान रहते हैं। अगर उसकी सावधानी से || देखभाल की जाए, तो उसमें उत्तम संस्कारों का वपन होगा और बड़ा होकर राष्ट्र का उपयोगी घटक सिद्ध होगा। यह तभी हो सकेगा कि जब अभिभावक स्वयं सुसंस्कारी हों। • जीवन को सदाचार ही उन्नत बना सकता है। बुरे कार्यों का त्याग करना एवं जीवन में अच्छे कार्यों को ग्रहण | करना ही सदाचार है। यह सदाचार भी हमारी अच्छी-बुरी संगति पर निर्भर है। जीवन में हम जैसी संगति करेंगे वैसा ही हमारा आचार-विचार होगा। • जैसे पानी (स्वाति) की बूंद यदि गर्म तवे पर गिरे तो भस्म हो जाती है, लेकिन वही बूंद केले के पेड़ पर गिरे तो कपूर बन जाती है, सांप के मुँह में गिरे तो विष बन जाती है और वही बूंद सागर की सीप में गिरती है तो मुक्ता बन जाती है। उसी प्रकार हम जैसी संगति करेंगे वैसा ही हमारा आचार-विचार होगा एवं विनयादि गुणों की प्राप्ति होगी। जो माँ-बाप बच्चों के शरीर की चिन्ता करते हैं, किन्तु आत्मा की चिन्ता नहीं करते, उनके जीवन-सुधार की चिन्ता नहीं करते, वे सच्चे माँ-बाप कहलाने के हकदार नहीं हैं । वे पिंड की निर्मलता की ओर ध्यान देते हैं, पर उस पिण्ड में विराजित आत्मदेव की निर्मलता की ओर ध्यान नहीं देते। यदि माँ-बाप को अपना फर्ज अदा करना है तो उन्हें अपने बालक-बालिकाओं के चरित्र निर्माण की ओर पूरा ध्यान देना चाहिए।।। • जब तक बालक अपरिपक्व दिमाग का है, तब तक उसे जैसा समझाओगे वैसे ही समझ जाएगा। लेकिन कई | माँ-बाप तो लाड़ प्यार के कारण बच्चों को कुछ नहीं कहते, वे जैसा करना चाहें, वैसा करने देते हैं और जब-जब || जितने रुपये चाहिए तुरन्त दे देते हैं। इससे बच्चे बिगड़ते हैं। • हर माता-पिता यह देखें कि बच्चे-बच्चियों के जीवन में विकृति कहाँ से आ रही है। यह अच्छी तरह देखने के पश्चात् उनको समझाने का प्रयास किया जाए। समझाने-बुझाने के बाद उन्हें अपने विचार प्रकट करने का मौका दीजिए। जब उनकी समझ में यह बात आ जायेगी कि अमुक चीज़ से उनको नुकसान है और अमुक चीज से फायदा है तो वे स्वतः ही सीधी राह पर आ जायेंगे। यह चीज़ उनके दिमाग में जमा दीजिए कि जो कुछ वे कर रहे हैं, उससे धन, जीवन और समय की हानि हो रही है। आपके और हमारे जीवन में जो थोड़ी बहुत अच्छाई आयी है, वह भी बिना निमित्त के नहीं आई है। यदि आपके लिए कोई संतों का निमित्त नहीं बना होता या पूर्वजों का निमित्त नहीं होता, घर में अच्छा वातावरण नहीं होता, सत्संग नहीं मिलता तो जो थोड़ी बहुत अच्छाई आई है, वह आती क्या? आपने निमित्त का फायदा उठाया तो क्या आपके निमित्त का फायदा दूसरों को नहीं मिलना चाहिए? यदि आप निमित्त का फायदा दूसरों को नहीं देंगे तो मैं यह कहूँगा कि आप कर्जदार रह जाएंगे। इसलिए यदि अच्छा निमित्त बनें तो मर्जी आपकी,
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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