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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ४५० - श्रावक-कर्त्तव्य • आचार-पालन का आशय यह नहीं कि प्रजाजनों को निर्वीर्य होकर, राजकीय शासन के प्रत्येक आदेश को नेत्र बन्द करके शिरोधार्य कर लेना चाहिए। राज्य शासन की ओर से टिड्डीमार, चूहेमार या मच्छरमार जैसे धर्म-विरुद्ध आन्दोलन या आदेश अगर प्रचलित किये जाएं अथवा कोई अनुचित कर-भार लादा जाय तो उसके विरुद्ध सत्याग्रह या असहयोग करना व्रत भंग का कारण नहीं है। इस प्रकार का राज्य विरुद्ध कृत्य अतिचार में सम्मिलित नहीं होगा, क्योंकि वह छुपा कर नहीं किया जाता। इसके अतिरिक्त उसमें चौर्य की भावना नहीं, वरन् प्रजा के उचित अधिकार के संरक्षण की भावना होगी। इसी प्रकार अगर कोई शासन हिंसा, शोषण, अत्याचार, अनीति या अधर्म को बढ़ावा देने वाला हो तो उसके विरुद्ध कार्यवाही करना एक नागरिक के नाते उसका कर्तव्य है। इसमें कोई धर्म बाधक नहीं हो सकता। यह कार्यवाही विरुद्ध राज्यातिक्रम में सम्मिलित नहीं है। • श्रावक-धर्म का अनुसरण करते हुए जो व्यापारी व्यापार करता है, वह समुचित द्रव्योपार्जन करते हुए भी देश और | समाज की बहुत बड़ी सेवा कर सकता है। प्रत्येक जैन कुल में अमुक नियम अनिवार्य होने चाहिए। एक बार दिन में व्याख्यान नहीं सुन सकें तो भी धर्म-स्थान पर आकर मौन भाव से १० मिनट के लिए ही सही. धर्म-ग्रन्थ का स्वाध्याय करना चाहिए। ऐसा समाज धर्म हो सकता है। प्रतिदिन के कार्य की प्राथमिकता श्रावक की इस प्रकार होती है – १. देव-भक्ति, २. गुरु-सेवा, ३. परिवार एवं समाज-सेवा, ४. आरोग्य संरक्षण, ५. व्यवसाय । मेरे मत में ये पाँच खाने जीवन के बना लें और दिनचर्या के उसी प्रकार पाँच भाग करें। कितना भी आवश्यक कार्य क्यों न हो, नियमित दिनचर्या अवश्य निभावें । • जिस प्रकार व्यवसाय को आप आवश्यक समझते हैं, उसी प्रकार नियत समय पर स्वाध्याय और समाज-सेवा भी करें। डायरी में व्यवसाय को पाँचवा स्थान मिला है, पर आज उलटा हो गया। पहला स्थान व्यवसाय को, दूसरा स्वास्थ्य को, तीसरा परिवार को, और उसके बाद गुरुसेवा और देवभक्ति को आप स्थान दे रहे हैं। जबकि पहला स्थान देवभक्ति, दूसरा गुरुसेवा, तीसरा समाज-सेवा और चौथा आरोग्य संरक्षण को दिया गया था। आरोग्य नहीं रहा और पैसा मिल गया तो वह किस काम का? गुरुजनों की सेवा नहीं कर सका, शास्त्रों का अध्ययन नहीं कर सका तो चौबीसों घंटों कमाया गया पैसा किस काम आया? इसलिए मनुष्य को चाहिए कि पाँचों बातों को ध्यान में रखते हुए अपने जीवन का उद्धार करे। श्रावक-श्राविकाओं को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उनका अनुराग किसी भी दशा में धर्मानुराग की सीमा का उल्लंघन न करने पाये। उन्हें साधुओं को भिक्षा देते समय सही स्थिति जता कर भिक्षा देनी चाहिए। चाहे महाराज ज्यादा लेवें अथवा न लेवें तो कोई बात नहीं। परन्तु उनको कभी अंधेरे में नहीं रखना चाहिए। कोई वस्तु अपने लिए बनाई या मुनि के लिए बनाई है, या सूझती (निर्दोष) है या नहीं, यह सब भिक्षार्थ आये हुए मुनि को स्पष्ट रूप से बता देना श्रावक का फर्ज है। विवेकशील श्रावक-श्राविकाओं को साधु-साध्वियों का चारित्र निर्मल रखने में पूर्ण सहयोग देना चाहिए। श्रावक-श्राविकाओं में यदि विवेक नहीं होगा तो साधु-साध्वियों का संयम भी उच्च और निर्मल नहीं रह सकेगा। इसलिए श्रावक-श्राविकाओं में विवेक का होना तथा उनका अपने कर्त्तव्य के प्रति जागरूक रहना परमावश्यक है।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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