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द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
के रूप लावण्य, हास-विलास आदि को मन में रख कर कभी उन्हें देखने का प्रयत्न न करें। • राग-रहित साधक सजी हुई देवियों से भी विचलित नहीं होता, फिर भी एकान्त हितार्थ मुनिजनों को स्त्री आदि विकारी वातावरण से रहित स्थान पर ही ठहरना चाहिए। दशवैकालिक सूत्र में कहा है कि त्यागीजनों को शरीर की शोभा का वर्जन करना चाहिए। तेल-साबुन आदि से शरीर को सजाना भोगीजनों का काम है । मोह उत्पन्न हो ऐसी हर प्रवृत्ति से बचना ही वीतराग भाव की प्राप्ति का उपाय है। चारित्राचार में पाँच समिति और तीन गुप्ति के सन्दर्भ में कई उपादेय परम्पराएँ हैं। ईर्या समिति में मार्ग चलते बोलना, कथा करना, हँसना और एषणा में अन्न-पानादिक की बराबर गवेषणा नहीं करना, मंगाये हुए पदार्थ लेना, एक ही घर में अमर्यादित जाना, दिन में तीन बार भिक्षा करना आदि उदयमान की शिथिल परम्पराएँ है। इनको ध्यान में रखकर उपाश्रय में ही आहार आदि लेने या किसी एक घर में ही खाने की परम्परा डालना उचित नहीं कहा जा सकता । उदय भाव के कारण साधक त्याग, तप और व्रत-नियम की साधना करते हुए परीषहों से उद्वेलित हो अस्थिर हो उठता है। यह अनादि काल से कायर जन की परम्परा रही है। अरणक, जैसे कुलीन सन्त भी चर्या परीषह में आतप सहन नहीं होने से खिन्न हो संयम से विचलित हो गये। माता साध्वी को पता चला तो बड़ा दुःख हुआ। उसने पुत्र की मन: शान्ति के लिए उपदेश दिया और प्रायश्चित्त द्वारा उसे शुद्धि करने की शिक्षा दी। वह चाहती तो पुत्र की सुकोमल स्थिति को देख अपवाद रूप में जूते धारण करने या लाई हुई प्रासुक भिक्षा लेने की छूट दे देती, पर उसने वैसा नहीं किया, क्योंकि उसे इसमें पुत्र का अहित दृष्टिगोचर हुआ। उसने पुत्र की कायरता दूर कर उसे तप्त शिला पर लेट कर प्रायश्चित्त करने की शिक्षा दी। विवेकशील को चाहिए कि कभी कष्ट से घबरा कर किसी साधक को असमाधि हो तो उपदेश द्वारा स्थिर करने का प्रयत्न करे, न कि “डूबते को दो बाँस” की तरह उसे गिराने की चेष्टा करे। विद्वान् यदि दुर्बल परम्पराओं को झकझोर कर सबल बनाने का प्रयास करें, त्याग तप की परम्परा को पुष्ट करें तो शासन सेवा के साथ स्व-पर कल्याण हो सकता है। श्रेणिक राजा के पुत्र मेघ कुमार रात्रि में मुनियों के पैरों की ठेस और रजोहरण आदि के स्पर्श से निद्रा न आने के कारण चंचल मन हो, संयम छोड़ने को तैयार हो गये। शैलक मुनि सुख शय्या में साधना को भूलकर शिथिल विहारी हो गये, पर उनको क्रमश: भगवान महावीर और पंथक मुनि ने युक्तिपूर्वक स्थिर किया। साधुओं ने शैलक का सहयोग छोड़ा और पंथक मुनि ने भी अवसर देखकर उन्हें कमजोरी का ध्यान दिलाया, परिणाम स्वरूप शैलक उग्र विहारी हो गया। यदि साधु लोग उसके स्थिरवास और शिथिल विहार में सहयोगी होते तो शैलक का साधक जीवन गिर जाता। वे सदा के लिये स्थिर-वासी हो जाते। सन्तों ने उनका असमाधि भाव ज्ञान से दूर किया। आर्यरक्षित ने अपने प्रिय पिता को छत्र, उपानह आदि की छूट देकर मार्ग में लगाया और फिर युक्ति-पूर्वक पूर्ण त्याग-मार्ग पर स्थिर किया। यह है सत्य, प्रेम और स्वपर की कल्याण कामना। आज के त्यागियों को इससे शिक्षा लेकर सत् परम्परा से कोई खिन्न भी हो तो उसे स्थिर कर अपने बुद्धि-बल का परिचय देना चाहिए। इसी में शासन की शोभा और स्वपर का कल्याण है।