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________________ द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड ४५१ • गन्दे वातावरण का निर्माण करने वाले भी आप हैं और प्रशस्त परम्पराओं की प्रतिष्ठा करने वाले भी आप ही हैं। आपके वातावरण का निर्माण कोई दूसरा नहीं करता। गंदा वातावरण बनाने में आप अग्रगामी बनते हैं तो दूसरों को भी प्रोत्साहन मिलता है। इसके बदले अगर आप कोई अच्छी परम्परा शुरु करें तो आपका भी भला हो और दूसरों का भी भला हो सकता है। षट्कर्म • शरीर रक्षण में षट्कर्म को आवश्यक माना गया है। इसी प्रकार ज्ञानियों ने आत्म-रक्षण के लिए भी देवभक्ति, गुरु-सेवा, स्वाध्याय, संयम, तप और दानरूप षट्कर्म का विधान किया है। कहा भी है देवर्चा गुरुशुश्रूषा, स्वाध्याय: संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां, षट् कर्माणि दिने-दिने । - संघ • सामान्य रूप से संघ का अर्थ है समूह । अनेक प्राणियों के मिले जुले समूह को संघ कहते हैं। सेवा, सुश्रूषा, संरक्षण, आदि की सुविधा के लिए मनुष्य अपना कोई समूह बनाकर रहता है। जिसको संघ, समाज आदि किसी विशेष नाम से कहा जाता है। हजार पाँच सौ ईंटों को व्यवस्थित जमा दिया जाय तो अच्छी सी दिवाल या चबूतरा हो सकता है, किन्तु उनमें स्थायित्व लाने के लिए चूना, सीमेन्ट या चिकनी मिट्टी जैसा श्लेष जोड़ना पड़ता है अन्यथा कभी भी धक्का खाकर ईंट गिर सकती है । ऐसे ही मनुष्य में भी, स्नेह, श्लेष और सरलता हो तो संगठन टिक सकता है। ‘माया मित्ताणि नासेइ' जहाँ कपट है वहाँ प्रेम-मैत्री नहीं रह सकती। • जैसे जड़ जगत में अनंत परमाणु मिलकर स्कंध कहलाता है और व्यवहार में उपयोगी होता है वैसे ही अनेक व्यक्ति मिलकर जब संगठित होते हैं तो उसे संघ कहते हैं। एक की शक्ति दूसरे से मिलकर वृद्धिगत हो और उसका व्यवहार में विशेष उपयोग हो सके, यही संघ-निर्माण का मुख्य लक्ष्य है।। शक्ति एवं योग्यता हर व्यक्ति में है। जब एक से अनेक मिलते हैं तो उनकी शक्ति भी उसी प्रकार बहुगुणी हो जाती है जिस प्रकार एक से एक मिलने पर ग्यारह गुणे हो जाते हैं। परन्तु इतना ध्यान रहे कि विजातीय या विषम स्वभाव के अणुओं का मेल शक्ति को बढ़ाता नहीं, घटाता है। इसीलिये सुवर्णखान का पार्थिव पिंड बडा होकर भी उतना मूल्य नहीं देता जबकि शुद्ध होने पर सुवर्ण का पिंड लघु होते हुए भी बहुमूल्य हो जाता है। ऐसे ही मानव समाज में भी विषम शील और विरुद्ध आचार-विचार के लोगों का संगठन लाभकारी नहीं होता। • गुणहीन संगठन घास की पूली या भारे के समान है और गुणवान संघ घास के रस्से के समान है। घास का भारा और पूली मोटी होकर भी निर्बल होती है और रस्सा पतला होकर भी शक्तिशाली । मिथ्यात्वियों का करोड़ों का समूह ज्ञानादि गुणहीन होने से भवबंधन नहीं काट सकता, परन्तु सम्यग्ज्ञानी छोटी संख्या में भी ज्ञान आदि गुणों से सशक्त होकर स्व-पर का बंधन काट सकते हैं। यही सुसंगठन की महिमा है। भगवती सूत्र में संघ को तीर्थ कहा है 'तित्थं खलु चाउवण्णे समणसंघे' श्रमण प्रधान चतुर्वर्ण संघ ही तीर्थ है, तारने वाला है।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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