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________________ रगंधहत्थीणं ४४२ • कभी-कभी ऐसा अवसर भी आ जाता है कि भ्रम, विपर्यास या मानसिक दुर्बलता के कारण मनुष्य व्रत की सीमा से बाहर चला जाता है। आंशिक व्रत भंग अतिचार की कोटि में गिना जाता है और जब व्रत से निरपेक्ष होकर जानबूझ कर व्रत को खंडित किया जाता है तो अनाचार कहलाता है। व्रती पुरुष कुटुम्ब, समाज तथा देश में भी शान्ति का आदर्श उपस्थित कर सकता है और स्वयं भी अपूर्व शान्ति का उपभोक्ता बन सकता है। व्रती का जीवन दूसरों को पीड़ा प्रदायक नहीं होता, किसी को उत्ताप नहीं देता। वह धर्म, न्याय, शान्ति, सहानुभूति, करुणा और संवेदना जैसी दिव्य भावनाओं का प्रतीक बन जाता है। अतएव जीवन में व्रत-विधान की अत्यंत आवश्यकता है। अवस्था ढल गई है, सफेदी आ गई है, फिर भी १२ व्रत ग्रहण नहीं करते, यह कितने आश्चर्य की बात है? पाँच अणुव्रत अंगीकार करना तो बड़ा ही आसान कार्य है। बड़ी हिंसा, बड़ा झूठ, बड़ी चोरी का त्याग करना, एक करण दो योग से कुशील का सेवन नहीं करना, अपनी पत्नी की मर्यादा रखना और परिमित परिग्रह रखना, इनमें से आपके लिये कौनसी बात कठिन है, जो आप व्रत ग्रहण करने में इतने कतराते हो? • एक सप्ताह के लिये हिंसावृत्ति, परिग्रह, क्रोधादि को काबू में करने के लिए अभ्यास करें। सप्ताह-सप्ताह बढ़ाकर | चार महीनों तक साधना में कामयाबी हासिल करली तो फिर आप में साल भर करने का हौंसला आ जायेगा और साल भर इसको निभा लें तो आगे अड़चन आने वाली नहीं है। त्यागी दो तरह के होते हैं-एक मूल गुण पच्चक्खाणी और दूसरा उत्तरगुण पच्चक्खाणी । मूल गुण पच्चक्खाणी उसको कहते हैं जो हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँचों पापों का त्याग करता है। नवकारसी पालना, पोरसी करना, उपवास करना, आयंबिल करना, कुछ कपड़े रखकर कपड़ों की मर्यादा कर लेना, भोग और उपभोग की चीजों को छोड़ना, अमुक चीजों का सेवन छोड़ना-जैसे मिठाई, नमक, घी खाना छोड़ना, यह उत्तरगुण पच्चक्खाण है। • मूल गुण की मदद करने के लिये और उसको सुरक्षित रखने के लिए उत्तर गुण को एक सहयोगी व्यवस्था के रूप में रखा है, जब उत्तर गुण और मूल गुणों का अच्छी तरह से संरक्षण नहीं होता तो व्रतों के टूटने का खतरा रहता है। • व्रत करते-करते गलती हो गई तो उसको छिपाकर नहीं रखें। यह नहीं सोचें कि महाराज से कहूँगा तो मेरी हँसी करेंगे, और यह कहेंगे कि स्वयं ने नियम लिया और पालन नहीं कर सका। महाराज से छिपाकर रखना भी कायरता है। महाराज के पास जाकर गलती को मंजूर कर लिया, और वे जो प्रायश्चित्त दें तो उसे स्वीकार कर लिया और शुद्धि करके फिर से आत्मा को उजला बना दिया तो कायर कहलायेगा या शूर ? • एक छोटा सा सूत्र है 'नि:शल्यो व्रती' जिसके मन में शल्य नहीं हो, वह व्रती है। चाहे उपवास हो, आयम्बिल हो, त्याग हो, तप हो, या समाज में उच्च सेवा का काम हो, इन व्रतों को स्वीकार करते समय मन में शल्य नहीं होना चाहिए। • व्रत लेने से आत्मा का नियमन होता है, कामना कसी जाती है और मन की दुर्बलता मिटती है।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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