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________________ द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड ४४१ कुछ ऐसे बंधु मिलते हैं, जो कहते हैं महाराज ! प्रतिज्ञा करना, सौगन्ध लेना तो कमजोरी की बात है। हम सौगन्ध नहीं लेंगे, यों ही स्वतः नियम पालेंगे। पर वे भूल जाते हैं कि राजतंत्र में शासन का पदभार सम्हालने वाले ईमानदार से ईमानदार व्यक्ति को भी शपथ ग्रहण करवाई जाती है। शपथ ग्रहण करना केवल औपचारिकता मात्र नहीं है। सद्गुरु के समक्ष शपथ लेने से लेने वाले में आत्म-बल पैदा होता है, साथ ही यह विचार भी आता है कि गुरुदेव के समक्ष हुई प्रतिज्ञा का भंग किसी भी दशा में नहीं करना चाहिए। • इच्छा पर जितना ही साधक का नियंत्रण होगा उतना ही उसका व्रत दीप्तिमान होगा। इच्छा की लम्बी-चौड़ी बाढ़ पर यदि नियंत्रण नहीं किया गया तो उसके प्रसार में ज्ञान, विवेक आदि सद्गुण प्रवाह - पतित तिनके की तरह बह जायेंगे । व्रतों और नियमों को केवल दस्तूर के रूप में न लेकर आत्मा को कसने का उनसे काम लिया जाए, तो वास्तविक लाभ हो सकता है। खाने-पीने की वस्तुओं, सम्पदा, भूमि, वस्त्र और अलंकार आदि हर एक के परिमाण में यह लक्ष्य रखना है कि नियम दिखावे के लिए दूसरे के कहने पर या नाम के लिए नहीं, वरन् आत्मा । को ऊपर उठाने एवं जीवन को उज्ज्वल बनाने के लिए करना है 1 • १. हिंसा घटाने के लिए २. अविरति रोकने के लिए ३. स्वाद जय तथा जितेन्द्रियता की साधना के लिए व्रत करना चाहिए । • • शारीरिक, कौटुम्बिक, सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक आदि अनेकविध आवश्यकताएँ होती हैं जो मानव के द्वारा घटाई बढ़ाई भी जा सकती हैं। जैसे शारीरिक आवश्यकता में तेल, साबुन, पान, सुपारी, बीड़ी आदि बाह्य आवश्यकता है। आवश्यकता पर नियंत्रण करने वाला अपने मन की आकुलता मिटा लेता है। जैसे पृथ्वी की गोलाई पर कोई कितना ही घूमता रहे, पर उसका अन्त नहीं पाता । इसी तरह इच्छाओं का चक्र भी कभी युग-युगान्तर में पूरा नहीं होता । • पशु जीवनभर दो-चार वस्तुएँ ही ग्रहण कर लम्बी जिन्दगी काट लेते हैं। वन में रहने वाले ऋषि-मुनि दो-चार वस्तुओं से भी गुजारा कर दीर्घायु रहते थे। नागरिक जीवन की परिस्थिति भिन्न है, फिर भी वहाँ सीमा की जा सकती है। गृहस्थ जीवन में रहने वाले लोग भी सीमित वस्तुओं से अच्छा काम चला सकते हैं। 1 • व्रत ग्रहण करना यदि महत्त्वपूर्ण है तो उसका यथावत् पालन करना भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। उचित है कि मनुष्य अपने सामर्थ्य को तोल कर और परिस्थितियों का विचार करके व्रत को स्वीकार करें और फिर दृढ़ संकल्प के साथ उस पर दृढ़ रहें । व्रत ग्रहण करके उसका निर्वाह नहीं करने के भयंकर दुष्परिणाम या अनर्थ हो सकते हैं । किन्तु चूक के डर से व्रत ही नहीं करना बड़ी भूल है। जो कठिनाई आने पर भी व्रत का निर्वाह करता है और अपने संकल्प बल में कमी नहीं आने देता वह सभी कठिनाइयों को जीत कर उच्च बन जाता है। और अन्त में पूर्ण निर्मल बन कर चरम सिद्धि का भागी होता है । • साधु-जीवन का दर्जा बहुत ऊँचा है। इसका कारण यही है कि वे महाव्रतों का मनसा, वाचा, कर्मणा पालन करते हैं, और महाव्रतों के पालन के लिए उपयोगी जो नियम - उपनियम हैं, उनके पालन में भी जागरूक बने रहते हैं । यदि ऊँची मंजिल वाला फिसल गया तो वह चोट भी गहरी खाता है । अतः उसे बहुत ही सावधान होकर | चलना पड़ता है। भव-भव के बंधनों को काटने में वही सफल होता है जो व्रतों का पूर्ण रूप से निर्वाह करता है ।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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