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________________ (द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड . शास्त्र-ज्ञान • हर एक शास्त्र से परमार्थ प्राप्त नहीं होता, क्योंकि काम-शास्त्र, अर्थ-शास्त्र, रसायन-शास्त्र, नाट्य-शास्त्र और राजनीति-शास्त्र आदि अनेक शास्त्र हैं, परन्तु ये जीवन की दुर्वृत्तियों पर शासन करने के शास्त्र नहीं हैं। इनसे | लोक-जीवन का काम चल सकता है, अध्यात्म-जीवन का नहीं। धर्म-शास्त्र किसी को भी चोट पहुँचाने का निषेध करता है। धर्मशास्त्र का अनुगामी स्वयं हानि उठा लेगा, परन्तु दूसरे को धोखा नहीं देगा और आघात नहीं पहुँचायेगा। कुमार्ग में जाते समय उसका पैर लड़खड़ायेगा, हाथ कम्पित होगा और मन घबरा उठेगा। • एक अर्थवान मनुष्य दूसरे का धन छीनना चाहेगा, परन्तु धर्मशासन वाला व्यक्ति स्वप्न में भी दूसरे के धन पर | आँख नहीं उठायेगा। • धर्मशास्त्र में अज्ञान और मिथ्यात्व को मिटाने की शक्ति रहती है। यदि अपने आप में परमार्थ मिलाना है, तो परमार्थ के ज्ञाता लोगों की संगति करनी चाहिए और व्यर्थ की बात करने वाले प्रमादियों से सदा दूर रहना चाहिए। यदि ज्ञान की अपेक्षा से श्रमणों की नींव कच्ची रह गई है, तो वे संयम की निर्मल आराधना नहीं कर पायेंगे और अन्य संघ वालों के समक्ष उनकी ठीक वैसी ही दशा होगी, जैसी कि कीचड़ में फंसी एक दुर्बल गाय की दशा होती है। - शास्त्रधारी सेना • देश की शस्त्रधारी सशक्त सेना भी देश की आंतरिक स्थिति को नहीं सुधार सकती। बाहरी शक्ति से, बाहरी | शत्रु से देशवासियों के जान-माल को खतरा हो तो शस्त्रधारी सेना रक्षा कर सकती है, बाहरी शत्रुओं को नष्ट कर सकती है। वह भीतरी शत्रुओं को, आन्तरिक बुराइयों को नष्ट नहीं कर सकती । नैतिकता एवं आदर्श संस्कृति के विनाश की ओर बढ़ते चरण को रोककर संस्कृति को बचाना हमारी शास्त्रधारी सेना का काम है। शास्त्रधारी सेना तैयार करने के लक्ष्य से स्वाध्याय एवं शिक्षण की व्यवस्था आपके सामने है। स्वाध्याय को अपने जीवन, समाज और देश का निर्माण करने वाला समझकर आपको आगे बढ़ना है। अन्तःकरण के सब विकारों को दूर करते हुए आगे बढ़ना है। शास्त्र-रक्षा • जैन समाज के ग्रन्थागारों में, ज्ञान भण्डारों में लाखों ग्रन्थ भरे पड़े हैं। हमारे बुजुर्गों ने, सन्तों ने शास्त्रों की रक्षा के लिए बहुत प्रयत्न किये। पूर्व में जैनों का मुख्य मूल विचरण स्थल मगध था। पटना, राजगृह, चम्पा, वैशाली आदि क्षेत्रों में विचरण करने वाले जैन संघ का स्थान परिवर्तन हुआ। चतुर्विध संघ के समक्ष उस समय यह एक बड़ा महत्त्वपूर्ण प्रश्न था कि इन शास्त्रों की, अनमोल जैन साहित्य की सुरक्षा कैसे की जाए? उन्होंने शास्त्रों को जैसलमेर जैसे स्थान में देश के एक कोने में ले जाकर सुरक्षित रखा, जहाँ कि कोई विधर्मी, धर्मद्वेषी, क्रूरशासक सरलता से न पहुँच सके। अवन्ती-उज्जैन में न रखकर शास्त्रों को जैसलमेर में रखा। आज भी हजार-हजार वर्ष
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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