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________________ (द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड ४२७ निरन्तर आकर्षण बना रहे, उससे प्रेरणा मिलती रहे और जब कभी जीवन में अशान्ति हो और संताप हो तो किसी के समक्ष वह पुकार कर सके, इसके लिये वह परमात्मा के समक्ष स्तुति करता है। परमात्मा की स्तुति करते-करते और निश्चयनय के आत्मकर्तृत्व को ध्यान में रखते-रखते जब साधक उच्च भूमिका को स्पर्श करेगा तो स्वतः समझ लेगा कि परमात्मा तो निमित्त मात्र है। असली कर्तृत्व तो मेरी ही आत्मा में है। यह असंदिग्ध है कि जो भक्त शान्त चित्त से वीतराग की प्रार्थना करते हैं, स्मरण करते हैं, उन्हें जीवन में अपूर्व लाभ की प्राप्ति होती हैं। वीतराग के विशद्ध आत्मस्वरूप का चिन्तन भक्त के अन्तःकरण में समाधि भाव उत्पन्न करता है और उस समाधि भाव से आत्मा को अलौकिक शान्ति की प्राप्ति होती है। भक्त के हृदय में बहता हुआ विशुद्ध भक्ति का निर्झर उसके कलुष को धो देता है और आत्मा निष्कलुष बन जाती है। निष्कलुषता के इस लाभ में भक्त का भक्तिभाव ही अन्तरंग कारण है, वीतराग भगवान् तो निमित्त मात्र हैं। • जैसे मथनी घुमाने का उद्देश्य नवनीत प्राप्त करना है, उसी प्रकार प्रार्थना का उद्देश्य परमात्मभाव रूप मक्खन को प्राप्त करना है। प्रार्थना के द्वारा दो उद्देश्य सिद्ध किये जाते हैं - परमात्मस्वरूप की झांकी देखना और आत्मस्वरूप की झांकी करना । साधक पहले-पहल परमात्मस्वरूप की झांकी देखता है और फिर आत्म स्वरूप की भी झांकी उसे मिल जाती है। • वीतरागं स्मरन् योगी, वीतरागत्वमाप्नुयात् । अर्थात् जो योगी-ध्यानी वीतराग का स्मरण करता है, चिन्तन करता | है वह स्वयं वीतराग बन जाता है। फैशन - - % 3D अधिकांश नवयुवक अपने आपको विशिष्ट स्थिति का अथवा बड़े घर का सदस्य सिद्ध करने की भावना से भोगोपभोग, प्रसाधन, फैशन आदि की सामग्री पर फिजूल-खर्ची करते हैं। उनकी देखा-देखी अथवा इस भावना से कि कहीं कोई उन्हें साधारण घर का, गरीब घर का न समझ ले, साधारण घरों के युवक भी फैशन पर अपनी हैसियत से अधिक व्यय करने लगते हैं, जो किसी भी प्रकार ठीक नहीं है। बदलाव • जो चिन्तनशील एवं क्रियाशील होगा, वह आगे बढ़ जायेगा। नितान्त नास्तिक प्रदेशी राजा किस प्रकार सुधर गया, खुद को क्षमावान क्यों और कैसे बना लिया ? अर्जुनमाली कितना भयानक हत्यारा ? और प्रभव चोर कितना बड़ा डाकू, कितना बड़ा लुटेरा ? इतने बड़े क्रूर हत्यारे और लुटेरे । इतने क्रूर हत्यारे लोगों ने अपनी आदतें बदल डालीं। फिर आपकी हमारी आदतें क्यों नहीं बदलेगी? आप कहने लगते हैं, महाराज ! उनका मनोबल दृढ़ था। हमसे तो बर्दाश्त नहीं होता, रहा नहीं जाता, सहा नहीं जाता। यों कह अपनी कमजोरी को जिन्दगी भर कायम रखकर चलना चाहते हैं। आप अपने विकारों को दूर क्यों नहीं करते? अपने जीवन को | क्यों नहीं मांजते ? सादगी और सद्विचारों को जीवन में क्रियात्मक रूप में क्यों नहीं उतारते ? इस धरती पर | अर्जनमाली, प्रभव और प्रदेशी राजा सरीखे मानव आये और इस संसार की मोह-ममता के जाल से छूट कर चले गये। क्या हम कोरे के कोरे रह जाएंगे?
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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