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________________ ४१६ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं . विषय-विकार को दूर करके जो भक्तजन स्तुतिप्रधान एवं भावना-प्रधान प्रार्थना करते हैं, उनके जीवन में निर्मलता आ जाती है। हाँ, अगर याचनाप्रधान स्तुति करनी हो तो भौतिक एवं सांसारिक पदार्थों की याचना न करते हुए आत्मिक वैभव की ही याचना करनी चाहिए , जैसे—'सुमति दो सुमतिनाथ भगवन् !' . भगवद् भक्ति द्वारा साधक पुण्यार्जन भी करता है और पुण्य के योग से उसे भौतिक साधन अनायास ही उपलब्ध हो जाते हैं। कृषक धान्यप्राप्ति के लिए कृषि करता है, मगर भूसा भी उसे प्राप्त होता है। भूसे के उद्देश्य से कृषि करने वाला कृषक विवेकशील नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार आत्मिक विकास के लिए ही भगवद्भक्ति अथवा प्रार्थना करना उचित है। इस प्रधान एवं महत्त्वपूर्ण ध्येय से भ्रष्ट होकर केवल लौकिक लाभ के उद्देश्य से भगवान् की भक्ति करना बुद्धिमत्ता का लक्षण नहीं हैं। भौतिक साधन तनबल, धनबल, कुटुम्बबल, मानप्रतिष्ठाबल, आदि तो उसके आनुषंगिक फल हैं। इन्हें प्रधान ध्येय बनाने वाला साधक अपने आपको महान् फल से वंचित कर लेता है। अतएव आध्यात्मिक प्रार्थना में आंतरिक विकास की ओर ही दृष्टि रहनी चाहिए। आन्तरिक गुणों के विकास के प्रधान ध्येय को दृष्टि में रख कर ही यह विधान किया गया है कि प्रार्थनीय अरिहन्त हों, सिद्ध हों या साधना के पथ पर अग्रसर हुए निर्ग्रन्थ महात्मा हों। जब स्तुति के द्वारा अरिहन्त की प्रार्थना की जाएगी तो उनकी विशेषताएं-महिमाएं प्रार्थी के समक्ष आयेंगी, उनके प्रति अन्तःकरण में आकर्षण उत्पन्न होगा, वे उपादेय प्रतीत होने लगेंगी, उन विशेषताओं को अपने जीवन में प्रस्फुटित करने की प्रेरणा जागृत होगी और फलतः अरिहन्त के समान ही बनने की भावना एवं प्रवृत्ति का उदय होगा। संसार-व्यवहार में जब कोई किसी के समक्ष प्रार्थी बनकर जाता है, तब प्रार्थनीय प्रार्थी को कुछ ऐसी साधारण सी वस्तु देता है जिससे वह प्रार्थी के समान दर्जे पर न पहुँचे। प्रार्थी व्यापारी के पास जाता है और व्यापारी यदि प्रसन्न हो जाता है तो प्रार्थी को कुछ कमाई करवा देता है और सन्तुष्ट कर देता है। वह अपनी बराबरी के दर्जे पर उसे नहीं पहुंचाता। मगर वीतराग की प्रार्थना में विशेषता यह है कि प्रार्थी प्रार्थ्य के समान ही बन जाता है। इस प्रकार की उदारता सिर्फ वीतराग में ही है। आप पांच लाख के धनी हैं और आपके समक्ष कोई अभ्यर्थना लेकर आता है तो आप उसे पच्चीस-पचास या बहुत देंगे तो हजार दो हजार रुपये दे देंगे। अपनी सारी सम्पत्ति हर्गिज नहीं देंगे, बिल्कुल अपने समान नहीं बनायेंगे। प्रार्थी किसी अफसर के पास जाता है तो वह भी उसे अपनी समानता का दर्जा नहीं देता। कोई छोटी-मोटी नौकरी देकर ही अहसान लाद देता है। मगर वीतराग देव की बात निराली है। वे छोटे-मोटे या अपने से कम दर्जे की बात नहीं सोचते। जो प्रार्थी उनके चरणकमलों का आश्रय लेता है, वे उसे अपने ही समान वीतराग बना लेते हैं। उसमे कुछ भी कमी नहीं रहने देते। इसीलिए तो वीतराग देव ही प्रार्थनीय हैं। • समस्त पापों, तापों और सन्तापों से मुक्ति पाने का मार्ग है—अनुभव दशा को जागृत करना, स्वानुभूति के सुधासरोवर में सराबोर हो जाना, निजानन्द में विलीन हो जाना, आत्मा का आत्मा में ही रमण करना । जीवन में जब यह स्थिति उत्पन्न हो जाती है तो आत्मा देह में स्थित होकर भी देहाध्यास से मुक्त हो जाता है और फिर कोई भी सांसारिक संताप उसका स्पर्श नहीं कर सकता । जगत् की कोई भी वेदना उसे व्याकुल नहीं बना सकती। जब तक प्रार्थयिता को ज्ञान का प्रकाश नहीं मिला है, तब तक अपने कर्तृत्व के विचार से अहं बुद्धि उत्पन्न न हो, विकारों से ग्रस्त न हो जाए और उसके सामने परमात्मा का जो महान् और उज्ज्वल आदर्श है, उसके प्रति
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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