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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
• ब्रह्मचर्य • जो सुवर्ण की कोटि दान देता है, उसको उतना पुण्य नहीं होता, जितना ब्रह्मचर्य धारण करने पर होता है।
जनसंख्या की वृद्धि से चिन्तित राष्ट्रीयजन वैज्ञानिक तरीकों से संतति नियन्त्रण करना चाहते हैं। भले ही इन उपायों से संतति निरोध हो जाय और लोग अपना बोझा हल्का समझ लें, क्योंकि इन उपायों से संयम की आवश्यकता नहीं रहती और ये सुगम और सरल भी जंचते हैं, किन्तु इनसे उतने ही अधिक खतरे की सम्भावना भी प्रतीत होती है। भारतीय परम्परा के अनुसार यदि ब्रह्मचर्य के द्वारा सन्तति निरोध का मार्ग अपनाया जाए तो आपका शारीरिक व मानसिक बल बढ़ेगा और दीर्घायु के साथ आप अपने उज्ज्वल चरित्र का निर्माण कर सकेंगे। व्यवहार में स्त्री-पुरुष के समागम को कुशील माना गया है। यद्यपि संसार-वृक्ष का मूल होने से गृहस्थ इसका सम्पूर्ण त्याग नहीं कर सकता, फिर भी परस्त्री-विवर्जन और स्वस्त्री-समागम को सीमित रखना तो उसके लिए भी आवश्यक है। ब्रह्मचर्य व्रत उत्तेजना के समय मनुष्य को कुवासनाओं से विजय प्राप्त कराकर धर्म-विमुख होने से बचाता है। ब्रह्मचारी-सदाचारी गृहस्थ अपने जीवन में बुद्धि पूर्वक सीमा बांध कर, अपनी विवेक शक्ति को निरन्तर जागृत रखता है। वह भोग-विलास में कीड़े के सदृश तल्लीन नहीं रहता और न समाज में कुप्रवृत्तियों को ही फैलाता है। कामना का सीमित ढंग से शमन कर लेना ही उसका दृष्टिकोण रहता है। • कुशील की मर्यादा के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप से अनेक रूप हैं। अपने स्त्री या पुरुष का परिमाण द्रव्य मर्यादा है, क्षेत्र से दिदेश का त्याग करना, काल से दिन का त्याग और रात्रि की मर्यादा, भाव से एक करण एक
योग आदि रूप से व्रत की मर्यादा होती है। • यूनान के महा पण्डित एवं अनुभवी शिक्षक सुकरात ने अपने एक जिज्ञासु भक्त से कहा था कि मनुष्य को जीवन में एक बार ही स्त्री समागम करना चाहिए। यदि इतने से कोई काम नहीं चला सके तो वर्ष में एक बार
और यदि इससे भी काम न चले तो मास में एक बार । जिज्ञासु ने पूछा - अगर इससे भी आदमी काबू नहीं पा सके तो क्या करें? उत्तर मिला-कफन की सामग्री जुटाकर रख ले, फिर चाहे जितना भी समागम करे। • अल्पायु में मृत्यु का एक कारण अधिक मैथुन एवं आहार-विहार का असंयम भी है। • कुशील सेवन करने वाले, वीर्य-हानि के साथ असंख्य कीटाणुओं के नाश रूप हिंसा के भी भागी बनते हैं। ब्रह्मचर्य की पालना न करने वालों को प्रकृति के घर से सजा होती है और इसी के कारण आज रोगियों की
संख्या अधिक हो रही है। • दुराचारी व्यक्ति आत्म-गुणों को ही नष्ट नहीं करता, वरन् भावी पीढ़ी को बिगाड़ कर समाज के सामने भी गलत
उदाहरण प्रस्तुत करता है। अतएव कहा है - "शीलं परं भूषणम्” अर्थात् सोने-चाँदी आदि के आभूषण एवं
वस्त्रादि बाह्य सजावट की वस्तुएँ वास्तविक आभूषण नहीं हैं, किन्तु शील ही मानव का परम आभूषण है। • जिस मनुष्य के मस्तिष्क में काम-सम्बन्धी विचार ही चक्कर काटते रहते हैं, वह पवित्र और उत्कृष्ट विचारों से
शून्य हो जाता है। उसका जीवन वासना की आग में ही झुलसता रहता है। व्रत, नियम, जप, तप, ध्यान, स्वाध्याय और संयम आदि शुभ क्रियाएँ उससे नहीं हो सकती। उसका दिमाग सदैव गन्दे विचारों में उलझा