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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ४१६ दिनों में अपने आपको अच्छा लिखने लायक, पढ़ने लायक, बोलने लायक और समझने लायक बना लेता है। यदि वह परिश्रम नहीं करता तो उसके ज्ञान का विकास नहीं होता। अन्तर में शक्ति के विद्यमान रहते हुए भी यदि उसे जगाया नहीं गया तो विकास नहीं होगा। • कामना की पूर्ति का साधन अर्थ है और मोक्ष की पूर्ति का साधन धर्म है। आपको धर्म-पुरुषार्थ करना है। वही बन्धन काटने वाला है। पौषध पौषध का अर्थ है - आत्मिक गुणों का पोषण करने वाली क्रिया। जिस-जिस क्रिया से आत्मा अपने स्वाभाविक गुणों का विकास करने में समर्थ बने, विभाव परिणति से दूर हो और आत्म-स्वरूप के सन्निकट आए वही पौषध है। पौषधव्रत अंगीकार करते समय निम्नोक्त चार बातों का त्याग आवश्यक है१. आहार का त्याग। २. शरीर के सत्कार या संस्कार का त्याग-जैसे केशों का प्रसाधन, स्नान, चटकीले-भड़कीले वस्त्रों को पहिनना ___ एवं अन्य प्रकार से शरीर को सुशोभित करना। ३. अब्रह्म का त्याग। ४. पापमय व्यापार का त्याग। मन को सर्वथा निर्व्यापार बना लेना संभव नहीं है। उसका कुछ न कुछ व्यापार होता ही रहता है। तन का | व्यापार भी चलेगा और वचन के व्यापार का विसर्जन कर देना भी पौषध व्रत के पालन के लिये अनिवार्य नहीं है। ध्यान यह रखना चाहिये कि ये सब व्यापार व्रत के उद्देश्य में बाधक न बन जाएँ। विष भी शोधन कर लेने पर औषध बन जाता है। इसी प्रकार मन, वचन और काया के व्यापार में आध्यात्मिक गुणों का घात करने की जो शक्ति है उसे नष्ट कर दिया जाय तो वह भी अमृत बन सकता है। तेरहवें गुणस्थान में पहुंचे हुए सर्वज्ञ सर्वदर्शी अरिहन्त भगवान् के भी तीनों योग विद्यमान रहते हैं, किन्तु वे उनकी परमात्म दशा में बाधक नहीं होते । इसी प्रकार सामान्य साधक का यौगिक व्यापार यदि चालू रहे, किन्तु वह पापमय न हो तो व्रत की साधना में बाधक नहीं होता। • पौषधव्रत की आराधना एक प्रकार का अभ्यास है जिसे साधक अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाने का प्रयत्न करता है। अतएव पौषध को शारीरिक विश्रान्ति का साधन नहीं समझना चाहिए। निष्क्रिय होकर प्रमाद में समय व्यतीत करना अथवा निरर्थक बातें करना, पौषध व्रत का सम्यक् पालन नहीं है। इस व्रत के समय तो प्रतिक्षण आत्मा के प्रति सजगता होनी चाहिए। दूसरा कोई देखने वाला हो अथवा न हो, फिर भी व्रत की आराधना आन्तरिक श्रद्धा और प्रीति के साथ करनी चाहिए। ऐसा किये बिना रसानुभूति नहीं होगी। साधना में आनन्द की अनुभूति होनी चाहिए। जब आनन्द की अनुभूति होने लगती है तो मनुष्य साधना करने के लिए बार-बार उत्साहित और उत्कण्ठित होता है।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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