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द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
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■ प्रचार-प्रसार
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जैन धर्म का प्रचार-प्रसार केवल जैन नाम धराने से नहीं होगा, इसके लिए दो बातें चाहिये - (१) शास्त्रानुसार वीतराग धर्म का प्रचार करना और (२) स्वयं जिनाज्ञा का पालन करना ।
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धर्म क्षेत्र में प्रचार की अपेक्षा आचार की प्रधानता है । आचार पक्ष मजबूत होगा तो बिना प्रचार भी स्वत: प्रचार हो जाएगा । प्रचार के पीछे ज्ञान दर्शन - चारित्र को ठेस नहीं पहुँचे इस सीमा तक पर जो प्रचार संयम-साधना और आचार धर्म को ठेस पहुंचाए वह कदापि उपादेय नहीं होता । प्रचार उपादेय हो सकता है, • आपको ज्ञान होना चाहिए कि उपाध्याय यशोविजय जी सारे संसार को जैन शासन में लाना चाहते थे- प्रेम भावना से बंधुत्व की भावना से। उन्होंने कहा था- 'सर्व जीव करूं शासन रसी'। कहाँ तो यह भावना और कहाँ आज छोटी-छोटी बातों के कारण एक दूसरे से नाराज होने वाली हमारी मनोवृत्ति ? बाप बेटे से नाराज हो जाएगा, भाई-भाई से नाराज जाएगा, गुरु शिष्य से नाराज हो जाएगा। यदि किसी धर्म-गुरु ने एक शिष्य को बढ़ावा दिया तो दूसरा सोचेगा कि वह ज्यादा मुँह लग गया तो ठीक नहीं रहेगा। इसलिए वह उस पर रोक लगाने का प्रयत्न करेगा। आज हमारी बंधु भावना सकुचा गई है। एक दूसरे पर विश्वास नहीं करेंगे। इन बातों से कैसे उद्धार होगा ?
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कई माताएँ, बहनें प्रचार करने में तगड़ी हैं। पुरुषों को अपने विचारों का प्रचार करना ढंग से नहीं आता । पुरुष जितनी धीमी गति से प्रचार करेंगे, उतनी ही तेज गति से प्रचार करना ये बहनें खूब जानती हैं। जो बहन कुछ भी नहीं करने वाली है, उसमें भी ये ऐसी फूंक मारेंगी कि उसका मन बदल जाएगा।
• एक मदिरा का ठेकेदार स्वयं मदिरा नहीं पीते हुए भी उसका व्यापार कर सकता है। उसी प्रकार सिगरेट, बीड़ी, नायलोन के वस्त्र का व्यापारी इन वस्तुओं का व्यवहार किए बिना भी इनका व्यापार व प्रचार कर सकता है ।। किन्तु धर्म का प्रचार शुद्ध सदाचारी बने बिना संभव नहीं है।
• जो सत्य, अहिंसा और तप का स्वयं तो आचरण नहीं करे और प्रचार मात्र करे, तो वह अधिक प्रभावशाली नहीं हो सकता। इसके विपरीत, आचरणशील व्यक्ति बिना बोले मौन - आत्म-बल से भी धर्म का बड़ा प्रचार कर सकता है 1
मूक साधकों का दूसरे के जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। आचार तथा त्याग बिना बोले भी हर व्यक्ति के जीवन पर प्रभाव डालता है।
पहले जैनमुनि सार्वजनिक खुले स्थान वन, उपवन, श्मशान, तरुतल आदि में निवास करते थे। उनकी भिक्षा भी । खुली होती थी और जैन मुनियों के सत्संग, त्याग, तप से प्रभावित होकर लोग सेवा करते और उनको अपना । गुरु समझ कर धर्म के प्रति निष्ठावान बने रहते थे । जैन श्रमणों की तपश्चर्या और त्याग देखकर उनका धार्मिक विश्वास अटूट बना रहता था, किन्तु आज श्रमणों का निवास, भिक्षा, धर्मोपदेश, वर्षावास आदि समस्त कार्य सामाजिक स्थानों में और एकमात्र जैन समाज की व्यवस्था के नीचे ही होते हैं। अत: जैनेतर जनता व सामान्य लोगों को समान रूप से उनसे धर्मलाभ का अवसर नहीं मिल पाता। जैन मन्दिर आदि धर्म - स्थानों में इतर लोगों प्रवेश अनधिकृत माना जाता है। यह अधिकार व संकीर्णवृत्ति भी जैन धर्म के प्रसार में बाधक बन रही है। पहले जब जैनधर्म को राज्याश्रय प्राप्त था तब धार्मिक व्यक्तियों को व्यावहारिक जीवन में भी राज्य एवं समाज