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(द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
अपने जीवन में अधिकाधिक ढालने का भी अटल निश्चय करना है। पर्युषण के प्रारम्भ संवत्सरी के दिन तक आठ दिन का कार्यक्रम हर भाई-बहिन को ध्यान में रखना है। अन्य प्रकार का व्रत, नियम, त्याग नहीं कर सके, उपवास, पौषध नहीं कर सकें तो इतना ध्यान रखें कि सुबह-शाम सामायिक-प्रतिक्रमण अवश्य करें, व्याख्यान श्रवण का लाभ लें। कुशील का त्याग करना है, रात्रिभोजन का त्याग रखना है। इन दिनों में सिनेमा, चलचित्र, उपन्यास आदि में समय बिताने के बजाय स्वाध्याय का कार्यक्रम रखें । ज्ञानगोष्ठी करके अपने तथा दूसरों के समय का सदुपयोग करें। आठ दिनों तक किसी की निन्दा नहीं करें,
किसी को गालियाँ नहीं दें, किसी से लड़ाई नहीं करें, प्रमाद छोड़कर ज्ञान-ध्यान करें। • जैन धर्म की यह मान्यता है, जैन संस्कृति का यह विधान है कि पर्युषण के दिनों में एक स्थान पर बैठकर ही
धर्म-ध्यान करना चाहिए। जहाँ भी पहुँचना है वहाँ पर्युषण से पहले ही पहुँच जायें। यह नहीं कि आज इस स्थान पर गये तो कल दूसरे स्थान पर गये। आठ दिनों में इतने सन्तों या मुनिजनों के दर्शन कर लिये। यह रिवाज देखा-देखी में चल पड़ा है। लेकिन यह स्थानकवासी परम्परा के विरुद्ध है। पर्व के दिन पहला काम यह है कि हमारे दिल-दिमाग और व्रत में जो कचरा लगा है, उसको पहले बाहर निकालें। आज के जमाने में हमारा सामाजिक जीवन है, लेकिन व्यक्तिगत शुद्धि की उपेक्षा नहीं करनी है। समाज में रहते हुए सामाजिक जीवन में जो मिलावट कड़वाहट, विकार आए हैं, उनकी शुद्धि करना भी पर्व के | दिन का काम है। पर्व के दिनों में जो काम हो जाता है वह अन्य दिनों में नहीं होता। पर्युषण के इन महामंगलकारी पवित्र दिनों में तड़क-भड़क वाली पोशाकों और कीमती आभूषणों के स्थान पर || सादी वेश-भूषा में धर्म-स्थान में आवें और अंग पर शील का आभूषण एवं मुख पर मौन का भूषण धारण किये |
रहें तो आपको पर्वाराधन का और भी अधिक आनन्द प्राप्त होगा। • पुरुषार्थ
प्राणिमात्र के हृदय में ज्ञान का भंडार भरा है। कहीं बाहर से कुछ लाने की आवश्यकता नहीं है, परन्तु निमित्त के बिना उसको पाना कठिन है। सुयोग से किसी विशिष्ट निमित्त के मिलते ही उसका उपयोग लिया जाए तो अनायास प्रकाश प्राप्त हो जाता है। जैसे दियासलाई में अग्नि सन्निहित है, केवल तूली के घर्षण की आवश्यकता है वैसे ही मानव की चेतना सद्गुरु से घर्षण पाते ही जल उठती है। आवश्यकता केवल
शुभनिमित्त पाकर पुरुषार्थ करने की है। , भगवान् महावीर ने कहा-'ओ मानव ! यह न समझ कि ईश्वर, दैवी-शक्ति या नियति तुझे दुःख से मुक्त करेगी। नियति कोई प्राणियों की शास्ता भिन्न शक्ति नहीं, जो तुम्हारे दुःख-सुख का निर्माण करे। तुम्हारे दुःख-सुख का कारण तुम्हारे भीतर है।' आपका प्रश्न होगा तो क्या करें?' उत्तर स्पष्ट है-'पुरुषार्थ करें।' आप कहेंगे 'पुरुषार्थ तो हम निरन्तर करते आ रहे हैं। ऐसा कौनसा क्षण बीतता है जबकि हम पुरुषार्थ नहीं करते। कीड़े-मकोड़े से लेकर इन्द्र, महेन्द्र तक कोई व्यक्ति ऐसा नहीं है जो पुरुषार्थ नहीं करता हो। लेकिन पुरुषार्थ से कर्म-बंध भी होता है और मोक्ष भी होता है। शास्त्रकारों ने पुरुषार्थ के दो भेद किये हैं। एक भव-वर्धक अर्थात् बंधन बढ़ाने
वाला पुरुषार्थ और दूसरा भव-छेदक अर्थात् बंधन काटने वाला पुरुषार्थ । • अ, ब, स, जैसे अक्षरों को भी नहीं पहचानने वाला एक बालक जब स्कूल में जाकर पुरुषार्थ करता है तो चंद