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रगंधहत्थीणं
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से ही पतन हुआ। उसके सारे शरीर में कीड़े पड़ गए। ५. लाभमद- थोड़ा सा धन मिलने पर अकड़ जाना। ६. सूत्रमद- शास्त्रज्ञान का घमण्ड करना । तन से सेवा, धन से दान और ज्ञान से सद्बोध नहीं देकर उनका मद | करना त्याज्य है। जैसे तन-धन का मद बुरा है वैसे ही आध्यात्मिक मद भी बुरा है। योग्य होने पर भी दूसरों को अपने जैसा शास्त्रज्ञ, ज्ञानी और तपस्वी आदि नहीं समझना भी त्याज्य है। ७. तपमद- अपनी की हुई तपस्या का ढोल पीटना और नहीं करने वालों पर धौंस जमाना तपमद है। ८. ऐश्वर्यमद- हुकूमत या सत्ता का घमण्ड करना ऐश्वर्य मद है। ये आठों मद छोड़ने योग्य हैं। इसी प्रकार आठ प्रमाद भी छोड़ने योग्य हैं। सारांश यह है कि आठ कर्म, आठ मद और आठ प्रमाद छोड़ना इस पर्व के प्रमुख उद्देश्य हैं ।। • पर्वाधिराज पर्युषण का लक्ष्य आत्मशुद्धि करना है। आत्मशुद्धि के लक्ष्य तक पहुँचने के लिए आचार्यों ने एक व्यवहार, एक आचार पद्धति और एक साधना-क्रम का रूप रखा। अगर हम हर घड़ी, हर समय अपनी आत्मा का शोधन नहीं कर सकते तो कम से कम आठ दिनों में तो अवश्य ही करें। आठ कर्मों के निवारण के लिए साधना के ये आठ दिन जैन-परम्परा में अनमोल और आदर्श बन गए हैं। आवश्यक-सूत्र की नियुक्ति में तथा दूसरे आगमों में बताया गया है कि इन पवित्र दिनों को महत्त्व देने के लिए स्वर्ग के देव भी मनुष्य लोक में आते हैं। • पर्युषण पर्व के अन्तिम दिन का नाम ' संवत्सरी' है। यह पर्युषण पर्व का महान् शिखर है। सात दिन तो उसकी
भूमिका रूप हैं। जिन दिनों साधना में निरत साधक बाहरी वृत्तियों से मन को मोड़कर विषय-कषायों से मुक्त हो आत्मनिरत रहता है, उसी को पर्युषण पर्व कहते हैं । जैसे बांस में पर्व-पोर या गांठ का होना उसकी मजबूती का लक्षण है, वैसे ही जीवन रूपी बांस में भी यदि पर्व न होगा, तो जीवन पुष्ट नहीं होगा। जीवन-यष्टि की संधि में पर्व लाना, उसे गतिशील बनाना है। साधना का वर्ष भी पर्व से दृढ़ होता है। अन्य पर्यों से विशिष्ट होने के कारण इसे पर्वाधिराज माना गया है। यदि इसे सप्राण बनाना है या सही ढंग से पर्वाराधन करना है और सामाजिक एवं आध्यात्मिक बल बढ़ाना है, तो बच्चे और बूढ़े सभी में साधना की जान डालना, विषय-कषाय को घटाकर मन के दूषित भावों को दूर भगाना, इस पुनीत पर्व
का संदेश है। • पैसे, कीमती वस्त्र और आभूषणादि पर लोगों को प्रेम रहता है, परन्तु ये सब सांसारिक शोभा के उपकरण, |
उपासना के बाधक तत्त्व हैं। अतः इस महापर्व में जहाँ तक बन पड़े इनसे दूर रहना चाहिए। • इस आध्यात्मिक दीपावली के पुनीत पर्व के अवसर पर हमने साधारणतः अपने इस सम्पूर्ण जीवन में और विशेषतः वर्ष भर में जो-जो त्रुटियाँ की हैं, जो अपराध किए हैं, दुष्कृत किए हैं, आध्यात्मिक एवं नैतिक पतन के कार्य किए हैं, उनके लिये हमें आन्तरिक दुःख प्रकट करते हुए पश्चात्तापपूर्वक प्रायश्चित्त लेने के साथ-साथ अपने शेष जीवन में उन दुष्कृतों को पुनः कभी अपने आचरण में न लाने का दृढ़ संकल्प करना है। आध्यात्मिक अभ्युत्थान के लिये, आत्मा पर लगी कर्म-कालिमा को धो डालने के लिये, आत्मा के सच्चिदानन्दमय निर्मल, निष्कलंक स्वरूप को प्रकट करने के लिये जितने यम, नियम, जप, तप, शम, दम आदि सुकृत आवश्यक हैं, उन्हें